प्रार्थना अर्थात आर्ततासे निवेदन करना और कृतज्ञता अर्थात ईश्वरके प्रति अपनी श्रद्धा सुमन अर्पण करना |
कृतज्ञता भक्तिके भावको बढा देता है | ईश्वरने जो भी कुछ दिया है उसके प्रति आदरभाव रखते हुए उनके प्रति अपने श्रद्धा व्यक्त करना उसे कृतज्ञता कहते हैं | कृतज्ञताके भाव से हमारा कर्तापन घटता है | अतः प्रत्येक कृति करते समय प्रार्थना करना और कृति पूर्ण होनेके पश्चात कृतज्ञता व्यक्त करना यह साधना का यदि अभिन्न अंग बन जाये तो हमारी आध्यात्मिक प्रगति द्रुत गतिसे होने लगती है |
ईश्वरने हमें क्या नहीं दिया इसके लिए ईश्वरको उलाहना देना इसे साधक्त्त्व नहीं कहते | ईश्वर ने हमने क्या दिया है इसकी सूची बनाएँ तो आपको समझ में आएगा कि हम पर उनकी कितनी कृपा है | जैसे-जैसे हम उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं वैसे-वैसे हमें ज्ञात होता है कि हमें जो भी दुख मिले थे वह भी किसी न किसी रूपमें हमारी भलाईके लिए था |
कृतज्ञताके चरण :
जब सुखकी प्राप्ति हो और ईश्वरके प्रति श्रद्धा उत्तपन्न हो उसे कृतज्ञताका प्रथम चरण कहते हैं |
जब दुख मिले और तभी ईश्वरके प्रति उतनी ही श्रद्धा रहे और कृतज्ञता व्यक्त हो उसे कृतज्ञताका द्वितीय चरण कहते हैं | अखंड कृतज्ञताका भाव द्वैत अवस्थाकी पराकाष्ठा होती है | उच्च कोटिके संत अखंड कृतज्ञताके भावसे साधनारत रहते हैं इसे ज्ञानोत्तर भक्ति कहते हैं | – तनुजा ठाकुर
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