कुछ संत फक्कड जैसे रहते है और कुछ राजशाही ठाट-बाटमें ऐसा क्यों ?
खरे संत चाहे झोपडेमें हो या राजमहलमें, बाह्य वातावरण उन्हें तनिक भी प्रभावित नहीं करता क्योंकि वे आंतरिक रूपसे ईश्वरीय तत्त्वसे जुडे होते हैं |
एक बार समर्थ रामदास स्वामीके एक शिष्यने अपनी शंका व्यक्त करते हुए एक अन्य संत रंगनाथ स्वामीके बारेमें समर्थ रामदास स्वामीसे बोले ” मुझे तो वे ढोंगी लगते हैं संत होते हुए इतन ठाट-बाट उन्हें तनिक भी शोभा नहीं देता ” | स्वामी मुस्कुराए और बोले “समय आनेपर तुम्हारी शंकाका समाधान करूँगा ” |
कुछ दिन पश्चात एक दिन गुरु-शिष्य एक वनके बीचसे जा रहे थे, उसी समय रंगनाथ स्वामीकी राजशाही सवारी निकली, संत बाह्य रूपमें एक दूसरेसे परिचित हो या नहीं सूक्ष्मसे एक ही होते हैं ! रंगनाथ स्वामीने रामदास स्वामीको हाथीसे उतरकर ही नम्र अभिवादन किए और रामदास स्वामीने भी प्रत्युत्तरमें नमस्कार किये | दोनों एक दूसरेका कुशलक्षेम पूछनेके पश्चात बातें करने लगे तभी रामदास स्वामीने अपनी लीला रचनी आरम्भ की, उन्होंने रंगनाथ स्वामीसे कहा “संत होकर इतनी ठाट-बाट अच्छी नहीं लगती आप इन सबका परित्याग कर दें”, |
संत तो आसक्तिरहित होते हैं अतः रंगनाथ स्वामीने कहा “तथास्तु”, उसी राहसे उस समय एक पथिक जा रहा था, उन्होंने उसी क्षण एक राहगीरको अपने सब कुछ त्याग कर रामदास स्वामीकी तरह एक लंगोटमें अपने कमंडलु ले खडे हो गए | रामदास स्वामीने कहा “मैं पांच घर भिक्षा मांग कर आता हूं आप तब तक इसी पत्थरपर बैठे रहे ‘ | संत तो संत होते हैं उन्होंने उनकी बात स्वीकार कर ली और चिलचिलाती धुपमें पत्थरपर बैठ गए | रामदास स्वामी प्रतिदिन मात्र पाँच घर भिक्षा मांगते थे और उसमें जो मिलता था उसे ग्रहण कर साधनारत रहते थे, दो घंटे पश्चात जब रामदास स्वामी अपने शिष्यके साथ भिक्षा मांगकर, उस स्थानपर पहुंचे तो सारी स्थिति परिवर्तित हो चुकी थी, वहांपर एक अनेक लोग थे और पूरी राजशाही शिविर दिख रहा था, शिष्यने गुरूजीसे कहा “लगता है, रंगनाथ स्वामीजी कहीं चले गए उन्हें कडी धूप सहन नहीं हुई” !
तभी हीरे-जवाहरातसे लदे रंगनाथ स्वामीजी एक खेमेसे निकल कर उनका अभिवादन किया , शिष्य आश्चर्यचकित होकर देखता रह गया उनकी राजशाही ठाट-बाट पुनः दो घंटेमें लौट आई थी, संत तो अंतर्यामी होते हैं परंतु शिष्यको सिखानेके लिए कई बार उन्हें लीला करनी पडती है रामदास स्वामीने रंगनाथ स्वामीकी ओर देखते हुए कहा “यह सब क्या है” ? रंगनाथ स्वामी बोल पडे ” क्या करें मेरा भाग्य मेरा पीछा नहीं छोडती, आपके जानेके पश्चात, शिवाजी महाराजके सेनापति यहांसे जा रहे थे उन्होंने मुझे पहचान लिए और मुझे अपनी सारी लाव-लश्कर भेंट स्वरूप देकर चले गए ” यह कह कर अपने मूल्यवान हारकी और दिखाने लगे | रामदास स्वामीने उन्हें प्रणाम कर, मुस्कुराते हुए अपने शिष्यको ले आगे निकल गए | राहमें उन्होंने अपने शिष्यको बताया हम दोनोंमें कोई अंतर नहीं मात्र हमारा प्रारब्ध भिन्न है ! मैंने भिक्षाटन कर जीवन निर्वाह करना है और उनका राजयोग है अतः उन्होंने राज शाही ठाट-बाटमें रहकर साधना रत रहना है !
संतोंके देह प्रारब्ध भिन्न होते हैं अतः कोई गृहस्थ होता है और कोई सन्यासी , कोई जन्मसे उच्च कुलका, कोई निम्न कुलका , कोई स्त्री तो कोई पुरुष होता है; परंतु वे आतंरिक रूपसे ईश्वरसे जुडे होते हैं अतः संतोंको स्थूलकी दृष्टिसे नहीं पहचान सकते |
और एक बात है मायामें रहते हुए अनासक्त रहने वाले संत नगण्य ही होते हैं क्योंकि माया अपना पाश डाल कर फांस लेती है अतः साधक और संतोने इस बारेमें सदैव ही सतर्क रहना चाहिए |
Nice.