पुत्रस्यापि न मृष्येच्च स राज्ञो धर्म उच्यते । – शान्तिपर्व, महाभारत ९१:३२
अर्थ : पुत्रके भी अपराधको सहन नहीं करना ‘राजधर्म’ कहलाता है, किन्तु इस देशमेेेंं अपने अयोग्य, मूढ एवं कुपात्र पुत्रोंको सत्ता देनेके लिए आजके राजनेता सतत प्रयत्नशील रहते हैं और कईयोंने तो उन्हें सत्तासीन कर इस देशकी जगहंसाई करवा रहे हैं ! इससे सिद्ध होता है कि निधर्मी लोकतन्त्रमें राजधर्मके मूलभूत सिद्धान्तोंका हरण हुआ है; इसलिए धर्म अधिष्ठित हिन्दू राष्ट्रकी स्थापना करना अनिवार्य हो गया है ।
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