क्यों नहीं करना चाहिए सन्तोंका स्थूल अनुकरण ?


अध्यात्मशास्त्रका अभ्यास नहीं होनेके कारण कुछ साधक अपने गुरुका या सन्तका आधार लेकर उनके बाह्य आचरणका अनुकरण करते हैं; परन्तु ऐसा करना अयोग्य है । सन्तोंका मन ईश्वरसे एकरूप होता है; अतः उनका बाह्य आचरण उनकी साधनाको प्रभावित नहीं करता ।

सन्तोंने किस प्रकार साधनाकी ? जिससे वे सन्त बने, इसकी अपेक्षा सन्तकी स्थूल कृतिका अनुकरण करना पूर्णतः अनुचित है । इस सन्दर्भमें एक छोटीसी कथा अत्यन्त प्रेरणादायी है ।

एक शिष्यको अपने गुरुजीकी स्थूल कृतियोंका अनुकरण करनेकी वृत्ति थी । गुरुजीने कई बार उसे उसकी चूक ध्यान दिलाई; परन्तु शिष्यकी इस वृत्तिमें कोई सुधार नहीं दिखा । तब गुरुजीने उसे प्रत्यक्षमें सीख देनेकी सोची । एक दिवस गुरुजी और शिष्य दोनों हरिद्वारमें गंगा स्नानकर रहे थे, स्नानके मध्य एक बार गुरुजीकी अंजुलीमें चार छोटी मछलियां आ गईं । शिष्यने देखा, गुरुजी मछलियोंको अंजुलीके जलके साथ निगल गए । शिष्यने अंजुलीमें जल उठाया, तो गुरुलीला अनुसार उसके अंजुलीमें भी चार छोटी मछलियां आ गईं । शिष्यने गुरुजीका अनुकरण करते हुए उन्हें निगल गया । पन्द्रह दिनोंके पश्चात दोनों गुरु शिष्य वाराणसीके गंगामें स्नान कर रहे थे । गुरुजीने शिष्यको दिखाते हुए डकार लगाई और चार मछलियां थोडे बडे आकारमें निकल आईं और वह भी जीवित ! गुरुजीने कहा, “इनके परिवारवाले इनकी प्रतीक्षा कर रहे थे; अतः इन्हें यहां छोड देता हूं” और सङ्केत देकर कहा, “तुम भी अपनी मछलियां पेटसे निकालो ।”

शिष्यने संकोचवश कहा, “प्रयत्न करता हूं”; परन्तु मछलियां नहीं निकलीं । शिष्यने कहा, “सम्भवतः वे पच गईं ।” और अपनी इस कृतिपर लज्जित हुआ और भविष्यमें गुरुजीकी स्थूल कृतियोंका कभी भी अनुकरण न करनेका प्रण ले लिया ।



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