सुलतानपुरका गांव, कभी प्रत्येक घर था धातुके बर्तनोंका कारखाना, आज लोग कर चुके हैं पलायन !!


मई ९, २०१९

 


यूं तो उत्तरप्रदेशकी पीतल नगरी मुरादाबाद मानी जाती है; परन्तु सुलतानपुरका बंधुआ कलां गांव भी कभी पीतल और तांबेके पात्रोंके लिए जाना जाता था । तब यहां लगभग प्रत्येक घरमें पीतल और तांबेके पात्र (बर्तन) बनाए जाते थे । ढलाईसे लेकर नक्काशीतकका कार्य होता था, जिसके लिए घरके खुले भागमें लोगोंने भट्टी बना रखी थी; परन्तु धीरे-धीरे पीतलका स्थान स्टीलके पात्रोंने ले लिया और यहांके लोगोंका व्यापार ठप पड गया । आयकी खोजमें यहांसे लोग दूसरे नगरोंकी ओर रवाना हो गए है । आज स्थिति यह हैं कि गांवके अधिकतर घरोंमें ताले पडे हैं ।


गांवमें जो लोग शेष हैं, वे श्रमिकका कार्य करके किसी प्रकार परिवार चलानेको विवश हैं । गांवमें इक्का-दुक्का घर ही ऐसे हैं, जहां बर्तनोंकी ढलाई और नक्काशीका कार्य होता है । इसी गांवमें रहनेवाले मनोज कुमार कौशल बताते हैं, “एक समय था, जब बंधुआ कलाके ठठेरी बाजार मोहल्लेके २०० से ३०० घरोंमें प्रतिदिन बर्तन बना करते थे । प्रत्येक घर तब कारखाना हुआ करता था । घरोंमें पीतल, तांबे, कांसा धातुके बटुआ, लोटा, हंडा, परातसे लेकर प्रत्येक पात्रोंकी (बर्तनोंकी) ढलाई होती थी । प्रत्येक घरसे बर्तनोंकी खनक सुनाई देती थी ।”

वह बताते हैं कि यहांसे बननेवाले बर्तन लखनऊ, चंदौसी, रायबरेली और दूसरे जनपदमें जाया करते थे । नेपालमें सीमा पारतकसे बर्तनोंकी मांग थी । सुलतानपुरके स्थानीय दुकानदार भी यहींके बने बर्तन विक्रय करते थे । मनोज बताते हैं, “धीरे-धीरे व्यापार ठप हो गया और शासनने भी कोई ध्यान नहीं दिया । न ही यहांके लिए कारखाना बनवाया और न ही उद्योगका स्थान दिलवाया । विवश होकर लोग दूसरे नगरोंकी ओर पलायन कर गए ।”
लखनऊ, मीरजापुर और मध्यप्रदेश पलायन कर गए लोग
बंधुआ कला गांवमें इस समय सौ से अधिक परिवार दूसरे नगरोंकी पलायन कर चुके हैं । ये सभी लखनऊ, मीरजापुर, मुरादाबाद, फैजाबादके अतिरिक्त मध्य प्रदेशके कई नगरोंमें जा चुके हैं । गांवमें कुछ लोग ही शेष हैं, जो अपने पैतृक व्यवसायसे अभी भी जुडे हैं । गर्मियोंकी सन्नाटेवाली दोपहरमें यहां आज भी बर्तन पीटनेकी ध्वनि आती है, जब हम उनके पहुंचे तो उनके मुखपर शासन और प्रशासनकी उपेक्षा स्पष्ट दिख रही थी ।


अपने घरमें पीतलकी परातमें नक्काशी कर रहे मदन गोपालने बताया, “केवल रविवार या छुट्टीवाले दिवस ही अब मैं इस कार्यको करता हूं । यहां इसका कोई व्यापार नहीं रह गया है । घरका व्यय चलानेके लिए तो मुझे श्रमिकका कार्य करना पडता है ।” वह आगे कहते हैं कि यहां शासनने बंधुआ कलाके लिए कुछ नहीं किया, पहले कांग्रेसने कई वर्षोंतक लूटा, अब बीजेपी आई तो उसने भी गांवकी स्थितिपर ध्यान नहीं दिया ।


बंधुआ कला गांवमें रहनेवाले दीनानाथने बताया, “अब यहां केवल बटुआ (बर्तन) ही बनते हैं, जो यहांसे बाहरके नगरोंमें विक्रय होनेके लिए भेजे जाते हैं । बटुआ एक प्रकरका भगौना होता है, जो आकारमें अत्यधिक बृहद होता है । इनका मूल्य ४००० से १६ सहस्र तक होता है; परन्तु मांग अत्यल्प हैं । कभी कभार विवाहके समयमें थोडा बहुत कार्य मिल जाता है, तदोपरान्त रिक्त बैठना पडता है ।”

उल्लेखनीय है कि १२ मईको छठे चरणके चुनावमें सुलतानपुरमें भी मतदान होना है । यहांसे सांसद वरुण गांधी इस बार सीट परिवर्तितकर पीलीभीतसे चुनाव लड रहे हैं, जबकि उनकी मां और केन्द्रीय मन्त्री मेनका गांधी सुलतानपुरसे चुनाव लड रही हैं । वहीं कांग्रेसकी ओरसे संजय गांधीके सहयोगी संजय सिंह हैं ।


“समयके साथ आलसी हुई गृहणियां और शासन दोनों ही इसके लिए समान रूपसे उत्तरदायी है । स्टीलके पात्र स्वास्थ्यके लिए लाभप्रद नहीं है, जबकि पीतल, कांसे व ताम्बेके अनेकानेक लाभ प्रदान करते हैं, इनमें पकाए भोजनमें पौष्टिकता अधिकाधिक बनी रहती है, जबकि आधुनिक प्रयोग किए जानेवाले पात्र रोगजनक होते हैं । शासन और प्रशासनकी उदासीनता इसलिए है; क्योंकि वे मात्र सत्ता भोगने हेतु आते हैं; अतः किसी भी दलसे इस विषयमें आशा रखना व्यर्थ है । अब लोगोंको ही जागरुक होना होगा और महत्वपूर्ण धातुओंके पात्रोंको पुनः घरोंमें स्थान देना होगा ताकि आपका स्वास्थ्य भी बढे और बर्तनोंकी मांग भी !” –  सम्पादक, वैदिक उपासना पीठ

स्रोत : नभाटा



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