महाभारत ग्रन्थका महत्त्व


महाभारत ग्रन्थका महत्त्व क्या है?, उसका पठन किस दृष्टिसे करना चाहिए?, इसका महत्त्व इस श्लोकसे ज्ञात होता है ।
 
द्वैपायनेन यत् प्रोक्तं पुराणं परमर्षिणा ।
सुरै: ब्रह्मर्षिभिश्चैव श्रुत्वा यदभिपूजितम् ।।
तस्याख्यानवरिष्ठस्य  विचित्रपदपर्वण: ।
सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैर्भूषितस्य च ।।१८।।
भारतस्येतिहासस्य पुण्यां ग्रन्थार्थसंयुताम् ।
संस्कारोपगतां ब्राह्मीं नानाशास्त्रोपबृंहिताम् ।।१९।।
जनमेजयस्य यां राज्ञो वैशम्पायन उक्तवान् ।
यथावात् स ऋषिस्तुष्ट्या सत्रे द्वैपायनाज्ञया ।।२०।।
वेदैश्चतुर्भि: संयुक्तां व्यासस्याद्भुतकर्मण: ।
संहितां श्रोतुमिच्छाम: पुण्यां पापभयापहाम्  ।।२१ ।। – आदिपर्व महाभारत
 

ऋषियोंने कहा – उग्रश्रवाजी ! परमर्षि श्रीकृष्ण – द्वैपायनने जिस प्राचीन इतिहासरूप पुराणका वर्णन किया है और देवताओं तथा ऋषियोंने अपने-अपने लोकमें श्रवणकरके जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है, जो आख्यानोंमें सर्वश्रेष्ठ है, जिसका एक-एक पद, वाक्य एवं पर्व विचित्र शब्दविन्यास और रमणीय अर्थोंसे परिपूर्ण है, जिसमें आत्मा-परमात्माके सूक्ष्म स्वरूपका  निर्णय एवं उनके अनुभवके लिए अनुकूल युक्तियां भरी हुई हैं और जो सम्पूर्ण वेदोंके तात्पर्यानुकूल अर्थोंसे अलंकृत है, उस भारत-इतिहासकी परम पुण्यमयी, ग्रन्थके गुप्त भावोंको स्पष्ट करनेवाली, पदों-वाक्योंकी व्युत्पत्तिसे युक्त, सब शास्त्रोंके अभिप्रायके अनुकूल और उनसे समर्थित जो अद्भुतकर्मा व्यासकी संहिता है, उसे हम सुनना चाहते हैं । अवश्य ही वह चारों वेदोंके अर्थोंसे भरी हुई तथा पुण्यस्वरूपा है, पाप और भयका नाश करनेवाली है । भगवान  वेदव्यासकी आज्ञासे राजा जनमेजयके यज्ञमें प्रसिद्ध ऋषि वैशम्पायनने आनन्दमें भरकर भलीभांति इसका निरूपण किया  है ।।



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