महाशिवरात्रिका त्योहार विक्रम संवत अनुसार फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी एवं शक संवत अनुसार माघ कृष्ण पक्ष चतुर्दशीको अर्थात् २४ फरवरी २०१७ को है, इसे सम्पूर्ण भारतमें श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है । शास्त्रोंके अनुसार यदि शिवरात्रिका व्रत किसी विशेष कामनाको उद्देशित कर किया जाए तो वह इच्छा पूर्ति होती है एवं निष्काम किया जाए तो भगवान शिवकी कृपा प्राप्त होती है । जिस तिथिके जो स्वामी होते हैं, उस तिथिमें उस विशेष देवताकी पूजा-अर्चना या साधना करना अति उत्तम होता है । चतुर्थी तिथिके स्वामी आदिदेव महादेव हैं; अतः उनकी रात्रिमें व्रत किए जानेके कारण इस व्रतका नाम शिवरात्रि होना सार्थक हो जाता है ।
१. शिवरात्रिका व्रत कौन कर सकता है ?
शिवरात्रिका व्रत कौन कर सकता है इस सम्बन्धमें एक श्लोक इस प्रकार है –
शिवरात्रिव्रतं नाम सर्वपापप्रणाशनम् ।
आचाण्डालमनुष्याणां भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ।।
इस श्लोकके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अछूत, स्त्री, पुरुष, बाल, युवा, वृद्ध सभी इस व्रतको कर सकते हैं एवं प्रायः सभी करते भी हैं ।
सौर, गाणपत्य, शैव, वैष्णव एवं शाक्त इन पांचों सम्प्रदायमें विराट हिन्दू समाज विभक्त है । इनमेंसे जो जिसके उपासक होते हैं वे अपने आराध्यको छोडकर अन्य किसीकी उपासना नहीं करते हैं; किन्तु शिवरात्रि व्रतकी महिमा इतनी अपरमपार है कि अधिकांश हिन्दू सभी साम्प्रदायिक भेदोंका परित्याग कर, इस महापर्वको मनाते हैं एवं इसके फलस्वरूप इच्छित भोग और मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
२. शिवरात्रि कब होता है ?
यद्यपि प्रत्येक मासकी कृष्ण चतुर्दशी शिवरात्रि होती है एवं शिवभक्त प्रत्येक कृष्ण चतुर्दशीका व्रत करते ही हैं; किन्तु ईशान संहिता अनुसार –
माघकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि ।
शिवलिङ्गतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ: ।।
तत्कालव्यापिनि ग्राह्या शिवरात्रिव्रते तिथि: ।।
अर्थात् शक संवत अनुसार माघ मासकी कृष्ण चतुर्दशीकी महानिशा अर्थात् निशीथ काल जिसे अर्द्धरात्रिका काल भी कह सकते हैं उसमें आदिदेव महादेव कोटि सूर्य समान दीप्ति सम्पन्न हो शिवलिंगके रूपमें आर्विभूत हुए थे; अतः शिवरात्रि व्रत उसी महानिशी व्यापिनी चतुर्दशीका ग्रहण करना चाहिए । ईशान संहिताके अनुसार शिवकी प्रथम लिंग मूर्ति उक्त तिथिकी महानिशामें पृथ्वीसे पूर्व आर्विभूत हुई थी । इसीके उपलक्ष्यमें इस व्रतकी उत्त्पति बताई जाती है । इस श्लोकका महानिशा शब्द भी एक विशिष्ट अर्थका ज्ञापक है । महर्षि देवल कहते हैं –
महानिशा द्वे घटिके रात्रेर्मध्यमयामयो: ।
अर्थात् चतुर्दशी तिथियुक्त चार प्रहर रात्रिके मध्यवर्ती दो प्रहरोंमें पहलेकी अंतिम एवं दूसरेकी आदि, इन दो घटिकाओंके कालको महानिशा या निशीथ कालकी संज्ञा दी गई है । ख्रिस्ताब्द २०१७ के २४ फरवरीके दिवस होनेवाली शिवरात्रिके निशीथ कालका समय ११.४६ बजेसे उत्तररात्रि १२.३६ मिनिट तक है ।
३. शिवरात्रि व्रत
शिव पूजा और शिवरात्रि व्रतमें थोडासा भेद है । व्रत शब्दके निर्वचनसे हम समझ सकते हैं कि जीवनमें जो वर्णनीय है अर्थात् बार-बार अनुष्ठानके माध्यमसे मन, वचन, कर्मसे जो प्राप्त करने योग्य है यही व्रत है । इसी कारण प्रत्येक व्रतके साथ कोई न कोई कथा या आख्यान जुडा रहता है । इन कथाओंमें ऐसे-ऐसे चरित्रोंकी बातें रहती हैं जिनके साथ उस व्रतकी उत्त्पति, परिणति एवं समाप्तिका संक्षिप्त इतिहास वर्णित रहता है ।
शिवरात्रि व्रत कथामें कहा गया है कि एक बार कैलाश शिखरपर माता पार्वतीने भगवान शंकरसे पूछा –
कर्मणा केन भगवन् व्रतेन् तपसापि वा ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां हेतुस्त्वम् परितुष्यति ।।
अर्थात् हे भगवन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थके हेतु आप ही हैं । साधनासे संतुष्ट होकर मनुष्यको आप ही इसे प्रदान करते हैं अतः यह जाननेकी इच्छा है कि किस कर्म, किस व्रत या किस प्रकारकी तपस्यासे आप प्रसन्न होते हैं । इसके उत्तरमें भगवान शंकर कहते हैं –
फाल्गुने कृष्णपक्षस्य या तिथि: स्याच्चतुर्दशी ।
तस्यां य तामसी रात्रि: सोच्यते शिवरात्रिका ।।
तत्रोपवासं कुर्वाण: प्रसादयति मां ध्रुवम् ।
न स्नानेन न वस्त्रेण न धूपेन न चार्चया ।।
तुष्यामि न तथा पुष्पैर्यथा तत्रोपवासत: ।।
अर्थात् विक्रम संवत अनुसार फाल्गुनकी कृष्ण पक्षकी चतुर्दशी तिथिको आश्रय कर जिस अंधकारमें रजनीका उदय होता है उसीको शिवरात्रि कहते हैं । उस दिन जो उपवास करता है वह निश्चय ही मुझे संतुष्ट करता है । उस दिन उपवास करनेसे मैं जैसे प्रसन्न होता हूं वैसा स्नान, वस्त्र, धूप और पुष्पके अर्पणसे भी नहीं होता । इस श्लोकसे यह स्पष्ट होता है कि इस व्रतका प्रधान अंग उपवास है तथापि रात्रिके चार प्रहारोंमें चार बार पृथक-पृथक पूजा करनेका विधान ही बताया गया है एवं इस सम्बन्धमें एक शास्त्र वचन इस प्रकार है –
दुग्धेन प्रथमे स्नानं दग्धा चैव द्वितीयके ।
तृतीये तु तथाssज्येन चतुर्थे मधुना तथा ।।
अर्थात् प्रथम प्रहरमें दुग्धद्वारा शिवकी ईशान मूर्तिको, द्वितीय प्रहरमें दहीद्वारा अघोर मूर्तिको, तृतीयमें घृतद्वारा वामदेव मूर्तिको एवं चतुर्थ प्रहरमें मधुद्वारा सत्युजात मूर्तिको स्नान करा कर उनका पूजन करना चाहिए । शिव रात्रिके अगले दिवस विसर्जनके पश्चात व्रत कथा सुनकर अमावस्याको यह कहते हुए पारण करना चाहिए –
संसारक्लेशदग्धस्य व्रतेनानेन शङ्कर: ।
प्रसीद सुमुखो नाथ ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ।।
अर्थात् हे शंकर मैं नित्य संसारकी यातनासे दग्ध हो रहा हूं इस व्रतसे आप मुझपर प्रसन्न हो एवं हे प्रभु संतुष्ट होकर, आप मुझे ज्ञानदृष्टि प्रदान करें ।
४. महा शिवरात्रिका अनुष्ठान चतुर्दशी तिथिको क्यों मनाया जाता है ?
चतुर्दशीके तत्त्वको समझनेके पूर्व अमावस्या किसे कहते हैं यह जानना आवश्यक है । ‘अमा’ पूर्वक ‘वस्’ धातुके साथ ‘ण्यत्’ प्रत्ययके योगसे अमावस्या शब्द व्युत्पन्न होता है इसकी व्युत्पतिको कुछ इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है । अमा = सह अर्थात् एक साथ वास करते हैं जिसका अर्थ है सूर्य और चन्द्र जिस तिथिमें एक साथ अवस्थान करते हैं वही अमावस्या है । यह व्याकरण एवं ज्योतिष सम्मत अर्थ है; परन्तु अध्यात्मशास्त्रमें सूर्य और चन्द्र परमात्मा और जीवात्माके द्योतक हैं । अतएव समाधि योगमें जब जीव और शिव एकत्रित अवस्थित होते हैं तब वह अद्वैतकी अनुभूतिका समय ही साधनामें अमावस्या है । समष्टि भावसे प्रकृतिमें जब इस अद्वैतकी लीला होती है, उस समय व्यष्टि भावसे अपने अन्दर या लीला स्वादन सहज ही हो जाता है; परन्तु अद्वैतकी स्थितिमें तो उपासना नहीं हो सकती; इसलिए चतुर्दर्शीमें जीव साधना कर शिवमें डूबनेका प्रयास करता है; परन्तु थोडा द्वैत भाव शेष रह जाता है । वह शुभ मुहूर्त ही जीवकी शिवोपासना या शिव पूजाका पुण्य लग्न है । अमावस्यामें जीव जब शिवसे एक रूप हो जाता है तो उनसे लेश मात्र भी भेद नहीं रह जाता । नेति-नेतिके साधनसे पूर्ण समाधिमें अद्वैत अवस्थाका चरमोत्कर्ष साध्य होता है । तभी व्रतकी पारण पूर्णता सम्पन्न होती है । उस समयकी इति-इतिकी साधनामें ‘यत्र यत्र मनो याति ब्रह्मणस्तत्र दर्शनम्’ इस प्रक्रियाका आरम्भ होनेसे शिवरात्रि व्रतका अनुष्ठान सार्थक होता है । – तनुजा ठाकुर
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