माता-पिताके साथ हमारा सम्बन्ध पाप-पुण्य अनुरूप होता है, वहीं गुरुके साथ हमारा सम्बन्ध अनेक जन्मोंके सत्कर्म एवं ईश्वरप्राप्ति हेतु निरन्तर प्रयासके कारण होता है । जब हमारा मुमुक्षुत्व एवं ईश्वरके प्रति भाव अपनी चरम सीमापर पहुंच जाता है तो खरे अर्थोंमें गुरुप्राप्ति होती है । माता-पिता हमें जन्म देकर इस संसारके बंधनोंमें डालते हैं, वहीं गुरु हमें जन्म-मृत्युके बंधनसे मुक्त करते हैं । संसारसे कोई विरले माता-पिता ही अपनी संतानोंको सम्पूर्ण जीवन उनका सर्व योगक्षेमको उठाते हुए साधना करनेकी अनुमति दे सकते हैं; किन्तु सभी गुरु अपने शरणागत शिष्यका सम्पूर्ण जीवन प्रतिपालन करते हैं और उसे मात्र और मात्र साधना करने हेतु सर्व साधन उपलब्ध करवाकर देते हैं ।
इस शरीरको माता-पिता जन्म देते हैं, लालन-पालनकर एवं सुसंस्कारितकर बडा करते हैं; और मनुष्य देह धारणकर ईश्वरप्राप्ति करना अधिक सरल होता है; इसीलिए ‘मातृ देवो भव एवं पितृ देवो भव’ कहा जाता है; किन्तु श्रीगुरु तो सर्व सुख-दुःखसे मुक्ति प्रदानकर मोक्षका मार्ग प्रशस्त करते हैं; इसलिए गुरुको परब्रह्म उपाधि दी गयी है । जन्मदाता माता-पिताके ऋणको हम सात जन्मोंतक सेवाकर पूर्ण नहीं कर सकते हैं, ऐसा शास्त्रवचन है, तो क्या श्रीगुरुका ऋण, शिष्य कभी उतार सकता है ? मात्र और मात्र आत्मज्ञानी होकर ही, शिष्य गुरु-ऋणसे उऋण हो सकता है । यदि माता-पिता आत्मज्ञान प्रदान करते हैं तो वे भी परब्रह्म स्वरूप ही होते हैं; किन्तु यह विरले ही होता है ।
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