एक युवा साधिका उपासनाके आश्रममें सेवा हेतु आई थी । वह प्रथम बार भाईदूजपर अपने घर और भाई से दूर थी । भाईदूजपर उसने अपने भाईको दूरभाष कर शुभकामनाएं दीं । उसने मुझे बताया कि उनके भाईने कहा कि इस बार वे उन्हें अधिक उपहार देंगे; क्योंकि वह त्योहारके समय आश्रममें सेवा दे रही है ।
आजके कालमें यह प्रसंग बहुत महत्त्वका है । आज जहां सामान्य पुरुष वर्ग अपनी बहन, पत्नी, भाभी या माताकी समष्टि सेवामें विघ्न उत्पन्न करते हैं, वहीं किसी भाईका ऐसा वक्तव्य सभीके लिए आदर्श है, ऐसे भाई अभिनन्दनके पात्र हैं और ऐसा कोई साधक ही कर सकता है ।
इतना ही नहीं जब उनके माता-पिता उन्हें लेने आए तो साधिकाके कहनेपर कि वह पुनः दिसम्बरमें सेवा देने आना चाहती है, उन्होंने इसकी सहर्ष अनुमति दी । इससे ज्ञात होता है कि साधकत्वका मापदण्ड कुटुम्बके सभी सदस्योंमें बहुत अधिक है, अन्यथा उत्तर भारतमें तो मैंने ९०% घरोंमें युवा वर्गको साधना व सेवामें प्रवृत्त देख विरोध करते हुए देखा है ।
किन्तु हिन्दू राष्ट्र आनेपर अनेक माता-पिता अपने बच्चोंको आश्रममें जाकर साधना व सेवा करने हेतु प्रवृत्त करेंगे; क्योंकि आपातकालमें सबके नेत्र खुल चुके होंगे और सबको गुरु और उनके मार्गदर्शनमें साधनाका महत्त्व ज्ञात हो चुका होगा ।
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