यदि पितरोंके छायाचित्र रखनेका विधान हिन्दू धर्ममें होता तो प्रत्येक घरमें सभीके पूर्वजोंके तैल-चित्र अवश्य होते; किन्तु ऐसा है नहीं ! मात्र राजाओंके तैल-चित्रका प्रचलन था, जिससे उनके वंशजोंको उनके गौरवशाली इतिहासका स्मरण रहे और वे भी राष्ट्र व समाजके रक्षण हेतु अपना सर्वस्व अर्पण करनेकी सिद्धता रखें, किन्तु वहां भी उनकी पूजा नहीं की जाती थी ! वे सर्व तैल-चित्र एक भिन्न कक्षमें होते थे, जहां अन्य ऐतिहासिक धरोधर भी सम्भाल कर रखी जाती थी, जिसकी नियमित स्वच्छ्ता एवं वास्तु शुद्धिकी जाती थी, जिससे उस कक्षमें अतृप्त पितरोंका वास न हो !
पूर्व कालके वर्ण-क्षत्रिय पितरोंकी तृप्ति व सद्गति हेतु सर्व शास्त्रोक्त कर्म श्रद्धापूर्वक करते थे । इस कारण उनके पूर्वज तृप्त रहते थे और यदि कोई पूर्वज किसी कारण अतृप्त रहते थे या उन्हें सद्गति नहीं मिलती थी तो उनके कुलगुरु उन्हें यथोचित शास्त्रोक्त उपाय बताते थे, जिसे श्रद्धापूर्वक किया जाता था । जिन लिंगदेहोंंको सद्गति नहीं मिलती है, वे भूत-प्रेत, पिशाचादि कष्टप्रद योनियोंमें रहते हैं और उनसे काली शक्ति सहज ही प्रक्षेपित होती है, जैसे देवताओंसे लाल, पीले, नीले या श्वेत रंगकी शक्ति या लहरियां, उनके कार्य अनुरूप या भक्तकी आवश्यकता अनुरूप प्रक्षेपित होती है । अतृप्त पितरोंसे प्रक्षेपित होनेवाली काली शक्ति वास्तु और व्यक्ति दोनोंमें कष्ट निर्माण करते हैं ।
आज भी राजस्थानके अनके विशाल किले भुतहा हैं ! कुछ किलोंंमें जाकर मैंने स्वयं भी इसकी प्रतीति धर्मप्रसारके मध्य ली है । (मैं बिना आध्यात्मिक शोध किए समाजको किसी भी तथ्यकी जानकारी नहीं देती हूं एवं ये शोध समाजको धर्माभिमुख बनानेमें सहायता करते हैंं, इसलिए करती हूं) यदि एक राजाकी अतृप्त लिंगदेह एक विशाल किलेको खण्डहर बनानेकी क्षमता रखती है तो आजके दो कक्षवाले घरको अतृप्त पूर्वज अपनी काली शक्तिसे क्यों नहीं आवेशित कर सकते हैंं ? किंचित सोचें !
यह सत्य है कि ऐसा कार्य मात्र जिन लिंगदेहोंको सद्गति नहीं मिलती है, वे ही करती हैं; किन्तु किस पूर्वज या पितरको सद्गति मिली है और किसे नहीं ?, यह मात्र कोई सन्त ही बता सकते हैं एवं सत्य तो यह है कि ऐसा करना सभी हिन्दुओंके लिए सम्भव नहीं; क्योंकि कुलगुरुकी परम्परा भी धर्मग्लानिके कारण नष्ट हो चुकी है एवं अधिकांश गुरु जो गुरु पदपर असीन हैं, उन्हें सूक्ष्म जगतकी कोई जानकारी होती ही नहीं है; क्योंकि वे गुरुपदके अधिकारी ही नहीं होते हैं ! वर्तमानकालमें ९८ % गुरु जो समाजमें गुरु बनकर समाजका मार्गदर्शन कर रहे हैं, वे गुरु पदके अधिकारी नहीं हैंं; इसलिए उन्हें सूक्ष्म जगतके विषयमें या तो पूर्ण ज्ञान नहीं है या अधूरा ज्ञान है या ज्ञान है ही नहीं ! अध्यात्मके २ % भागको ही बुद्धिसे समझा जा सकता है, शेष भागके लिए साधना करनी पडती है । विषयको रटकर उसका बौद्धिक विश्लेषण करनेवालेको सन्त नहीं कहते हैं, अपितु जो आत्मज्ञानी होते हैं, जिन्हें अध्यात्मके सूक्ष्म पक्षकी जानकारी होती है वे ही गुरु पदके अधिकारी होते हैं और इसकी जानकारी जितनी अधिक होती है, वे अध्यात्मके उनते ही उच्च पदपर आसीन होते हैं ! आजके अधिकांश धर्मगुरुओंका मार्गदर्शन मात्र मानसिक और बौद्धिक स्तरका होता है; क्योंकि सूक्ष्मकी उन्हें या तो अत्यल्प जानकारी होती है या होती ही नहीं है ! इस कटु सत्यको बतानेकी धृष्टता इसलिए कर रही हूं; क्योंकि गुरुपदके अधिकारी न होते हुए भी समाजको दिशाभ्रमित करनेवाले धर्मगुरुओंकी आज समाजमें बाढ आई है और इसके पीछे सामान्य हिन्दुओंकी मात्र अपने स्वार्थसिद्धि हेतु धर्मगुरुकी आवश्यकता ही मुख्य कारण है ! लौकिक जगतकी समस्याओंका समाधान बिना कुछ प्रयास किए ही मिल जाए, ऐसी अकर्मण्य प्रवृत्तिने ही समाजमें ऐसे गुरुओंको जन्म दिया है । आजका हिन्दू साधना योग्य पद्धतिसे करता नहीं है; इसलिए उसे जीवनमें दुखोंकी अधिकता होती है एवं अधिकांश हिन्दूओंको साधना हेतु कष्ट उठानेकी या योग्य पुरुषार्थ करनेकी इच्छा ही नहीं होती है; इसलिए वे अनाधिकृत या तथाकथित गुरुओंके चक्रव्यूहमें फंस जाते हैं !
हमारे मनीषियोंको यह ज्ञात था कि एक ऐसा भी काल आएगा; इसलिए उन्होंने पितरोंके छायाचित्रकी पूजाका विधान बनाया ही नहीं ! (क्रमश:)
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