पूर्व काल समान हम कलिकालमें साधनाको प्रधानता नहीं देते हैं; अतः हमारी विषय वासनाके संस्कार अति तीव्र होते हैं और मृत्यु उपरान्त भी यह संस्कार लिंगदेहमें विराजमान रहते हैं, ऐसे लिंगदेहमें जडत्व होनेके कारण मृत्यु उपरान्त गतिमें उन्हें कठिनाई होती है और वे अटक जाते हैं, इसे ही पितरोंको गति नहीं मिलना कहते हैं । धर्मग्लानि होनेके कारण मृत्योपरान्तकी यात्राके बारेमें विशेष जानकारी न होने एवं उस शास्त्रपर श्रद्धा न होनेके कारण वर्तमान समयमें लोग श्राद्ध इत्यादि विधि श्रद्धापूर्वक नहीं करते, यहांतक कि अन्त्येष्टितक शास्त्रानुसार नहीं करते और फलस्वरूप श्राद्धके कारण जो लाभ लिंगदेहको मिलना चाहिए वह नहीं मिलता और घरमें पूर्वज अशान्त रहते हैं ।
मैकालेकी शिक्षण पद्धतिने समाजमें धर्मके प्रति श्रद्धाको न्यून कर दिया है और धर्म शिक्षणके अभावमें अधिकतर पढे-लिखे हिन्दू इन बातोंपर विश्वास नहीं करते और इस कारण उनके कुलकी पीढियोंमें भी यह समस्या मात्र बनी ही नहीं रहती है; अपितु उसकी तीव्रता बढती जाती है और अन्तमें अतृप्त पूर्वज उस कुलका नाश कर देते हैं । ध्यानमें रखें ! तृप्त पूर्वज वंशकी वृद्धि करते हैं और अतृप्त पूर्वज वंशका नाश करते हैं, यह शास्त्र है ।
इसके साथ ही आज हम योग्य साधना नहीं करते हैं; अतः पूर्वजोंको हमें कष्ट देना और सरल हो जाता है । मृत्यु उपरान्त उनका एक ही लक्ष्य होता, ‘किसी प्रकारसे गति पाकर आगेकी यात्रा करना’, ऐसेमें यदि वंशज योग्य प्रकारसे साधना और धर्माचरण नहीं करते हैं तो उन्हे गति नहीं मिलती और फलस्वरूप वे क्रोधित होकर अपने कुटुम्बके सदस्योंको कष्ट देते हैं । योग्य प्रकारसे साधनाकी अखण्डता और सद्गुरुकी कृपासे ही अतृप्त पूर्वजोंको सद्गति मिल सकती है ।
अतृप्त पितरोंके कष्टसे निवारण हेतु अपने वास्तुको शुद्ध रखें, नियमित एवं श्रद्धापूर्वक मासिक और वार्षिक श्राद्ध करें और ‘श्री गुरुदेव दत्त’ यह दत्तात्रेय देवताका नामजप कष्टकी तीव्रता अनुसार दोसे छह घण्टे नियमित करें !
– (पू.) तनुजा ठाकुर (संस्थापिका, वैदिक उपासना पीठ)
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