भावजागृति करने हेतु ‘सत’के वातावरणमें रहना चाहिए अर्थात हमारा प्रत्येक कर्म सात्त्विक हो, हमारी वृत्ति सात्त्विक हो, धर्म अधिष्ठित हो, इस हेतु कष्ट उठानेकी वृत्ति निर्माण करनी चाहिए । जैसे एक मां यदि अस्वस्थ हो तो भी किसी न किसी प्रकार अपने बच्चोंको भोजन बनाकर या उसकी व्यवस्था करके देती ही है । वैसे ही कठिनसे कठिन परिस्थितियोंमें भी साधनामें सातत्य रहना चाहिए अर्थात साधना दिनचर्याका अविभाज्य अंग तभी बनती है जब हमारे भीतर यह भाव होता है कि मुझे ईश्वरको प्रसन्न करना है, वे मेरे लिए कितना करते हैं ! सातत्यसे किए सत्प्रयासोंसे भाव वृद्धि होती है और यही लगन एवं ढृढता, ईश्वरीय कृपा अर्जित करती है; अतः भाव जागृति एवं उसके पश्चात उसमें वृद्धि हेतु अपने सत्कर्मोंमें निरन्तरता रखना अति आवश्यक होता है ।
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