१. सर्वप्रथम हम आपको अध्यात्म और धर्मसे सम्बन्धित जो भी ज्ञान साझा करते हैं, वह सब गुरुकृपासे ही हमें प्राप्त हुआ है । वस्तुतः मेरे श्रीगुरुने बाल्यकालसे ही अर्थात जब वे मेरे जीवनमें स्थूल रूपसे नहीं थे तबसे ही उन्होंने मेरे माता-पिता, दादी, नानी एवं हमारे शिक्षकोंके माध्यमसे मुझे ज्ञान प्रदान किया एवं जबसे उन्होंने मेरे जीवनमें प्रवेश किया है, तबसे उन्होंने स्वयंके मुखारविन्द एवं लेखनसे तथा अन्य भिन्न माध्यमोंसे मुझे ज्ञान दिया है । वस्तुतः उन्होंने इतने भिन्न माध्यमोंसे मुझे सिखाया है और आज भी सिखा रहे हैं कि मेरा रोम-रोम उनके प्रति कृतज्ञता अनुभव करता है और उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु मैं उनकी वन्दना कर, अपने सत्संग या प्रवचनको आरम्भ करती हूं; क्योंकि यही हमारी सनातन संस्कृति एवं गुरु परम्परा रही है ।
२. हमारी संस्थाका एक मूल उद्देश्य है गुरु परम्पराकी पुनर्स्थापना करना, जैसे पूर्वकालमें प्रत्येक कुलके कुलदेवता और कुलगुरु होते थे, जो उस कुलके लोगोंका स्थूल और सूक्ष्म कल्याण करते थे, वैसे ही प्रत्येक हिन्दूके कुलमें इस पुरातन परम्पराकी स्थापना हो, इस उद्देश्यसे हम ऐसा करते हैं ।
३. ज्ञान-दानकी सेवासे अहम् बढनेकी अत्यधिक आशंका होती है; अतः मुझे सदैव इस बातका स्मरण रहे कि मैं जो ज्ञान समाजको देने जा रही हूं या देती हूं, वह मैंने अपने श्रीगुरुसे सीखा है और मेरा अहम् बढे नहीं; अपितु वह न्यून होता जाए, इस हेतु भी ऐसा करती हूं !
४. जैसे एक सुपुत्रका धर्म होता है कि वह अपने पिता एवं कुलका नाम सम्पूर्ण विश्वमें यशस्वी करे, वैसे ही एक सतशिष्यका धर्म होता है कि उनके गुरुका नाम सर्वत्र फैले, वे प्रातः स्मरणीय बनें ! मेरी भी इच्छा यही है कि मेरे श्रीगुरुका नाम प्रत्येक व्यक्तिके मुखपर हो एवं यदि कभी कोई मुझे इस जगतमें जाने तो मात्र और मात्र हमारे श्रीगुरुके एक साधकके रूपमें ही जाने और किसी भी रूपमें नहीं, इस तुच्छ जीवसे इस सम्बन्धसे यह एक छोटासा प्रयास है ।
५. मैंने जब प्रथम बार अपने श्रीगुरुके ग्रन्थ पढे थे तभी उनके लेखनसे अत्यधिक प्रभावित हुई थी और कुछ ही माहमें, मुझे उनके ज्ञानका प्रसार सम्पूर्ण जगतमें करना है, इसका संकल्प लिया था; अतः अपने ज्ञानदाताका नाम लेकर मैं अपने सत्संगको आरम्भ करती हूं, जिससे सभीको ज्ञात रहे कि जो मैं बताने जा रही हूं, उसे हमने अपने श्रीगुरुसे प्राप्त किया है और उस गुरुतत्त्वके प्रतिनिधिके रूपमें मैं अपने श्रीगुरुका स्मरण कर सत्संग आरम्भ करती हूं !
६. वस्तुतः गुरुका स्मरण वेद-स्मरण तुल्य होता है; क्योंकि वेदोंका ज्ञान भी हमें हमारी श्रेष्ठतम गुरु परम्परासे हुआ है; अतः उनका स्मरण कर, मैं प्रत्येक दिवस सबको वेदपठन कराती हूं एवं स्वयं भी करती हूं !७. यदि कोई व्यक्ति कोई सत्संग प्रथम बार सुने तो उन्हें भी हमारे श्रीगुरुका नाम ज्ञात हो इसलिए भी ऐसा करती हूं ! – तनुजा ठाकुर
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