प्रेरक कथा – संसार बुरा या भला ?


guru-shishya

एक गुरु थे । उनके दो शिष्य थे । एक दिन गुरु शिष्योंकी परीक्षा लेना चाहते थे । उन्होंने एक शिष्यको बुलाकर पूछा, “बताओ, जगत कैसा है ? तुम्हें कैसा लग रहा है ?”  उसने कहा, “बहुत बुरा है । सर्वत्र अंधकार ही अंधकार है । आप देखें,  दिवस एक होता है और दो रात्रियां । दो रातोंके मध्य एक दिन । पहले रात्रि थी, अंधेरा ही अंधेरा । तत्पश्चात् दिन आया । प्रकाश हुआ और पुनः रात्रि आ गई । अंधकार छा गया । एक बार प्रकाश , दो बार अंधकार । अंधेरा अधिक,  उजाला कम । यह है जगत ।”

अब गुरुने दूसरे शिष्यसे भी यही प्रश्न पूछा । उसने कहा, “गुरुदेव ! जगत् बहुत अच्छा है । प्रकाश ही प्रकाश है । रात्रि व्यतीत हुई । उजाला हुआ । सर्वत्र प्रकाश फैल गया । प्रकाश आता है तो तिमिर(अंधकार) दूर हो जाता है । वह सबकी मुंदी हुई आंखोंको खोल देता है, यथार्थको प्रकट कर देता   है । जो अंधकारसे आवृत था, उसे क्षण भरमें अभिव्यक्ति दे देता है, अनावृत्त कर देता है । कितना सुंदर और लुभावना है यह जगत कि इसमें ऐसा प्रकाश होता है । देखता हूं, दिन आया । व्यतीत हुआ । निशा(रात) आई। बीती तदुपरान्त दिन आ गया । इस प्रकार दो दिनोंके मध्य एक रात । प्रकाश अधिक, अंधकार कम । दो बार उजाला, एक बार अंधेरा ।” गुरु दोनों शिष्योंके उत्तर सुनकर मुस्कुरा दिए ।

व्यावहारिक जीवन हो अथवा साधक जीवन, जैसी दृष्टि होगी वैसी ही प्रचीति होगी । यदि ईश्वरको पानेके मार्गमें हम कष्ट, असुविधा, पीडा देखेंगे तो हमें यही दृष्टिगोचर होगा ; किन्तु हम इसके विपरीत अपना दृष्टिकोण रखें तो संसार हो या साधना आनंदके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं !!!



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