प्रेरक प्रसंग – अर्जुन व कर्णपर विचारोंका सम्मोहन !


विचारोंको बार-बार दोहराने अर्थात विचारोंके सम्प्रेषणके बारेमें महाभारतमें अर्जुन व कर्णके साथ एक प्रसंग आता है कि कैसे एक विचारको बार-बार दोहराते रहनेसे वह विचार हमारे जीवनपर प्रभाव डालता है । इसी बातसे अनभिज्ञ कई लोग प्रतिदिन नकारात्मक विचारोंको बार बार सोचकर अपने जीवनको नर्क बना रहे हैं ।
महाभारतमें अर्जुनके सारथी भगवान श्रीकृष्ण थे, जो उसे युद्धकी पूरी अवधिमें यही सन्देश देते रहे कि कौरवोंकी पराजय अवश्य होगी । अर्जुन, तुम महावीर हो ! तुम कर्णको मारनेमें अवश्य सफल रहोगे ! तुम्हारे साथ सत्यकी शक्ति है, परमात्माकी शक्ति है !
       इसके विपरीत कर्ण, अर्जुनसे कहीं अधिक वीर और साहसी होनेपर भी दुविधामें पडा रहा । उसकी माता कुंतीने युद्धसे पूर्व यह वचन ले लिया कि वह युद्ध भूमिमें अर्जुनके अतिरिक्त और किसी भाईको नहीं मारेगा । जीवनभर सारथी पुत्र कहे जानेवाले महापराक्रमी कर्णके मनमें कितना द्वन्द और दुःख रहा होगा कि उसको जन्म देनेवाली युगनारी माता कुंतीने उसे अपना पुत्र स्वीकारा भी तो कब ? जब वह अपने जीवनके सबसे भीषण और निर्णायक युद्ध महाभारतमें कौरवोंका सेनापति घोषितकर दिया गया । एक और अपने भाइयोंका मोह और दूसरी और जीवनभर कठिनाइयोंमें साथ देनेवाले मित्रका प्रेम !
उसने कर्तव्यपालनके कारण दुर्योधनका साथ देनेका ही निर्णय किया । सारथी पुत्र विशेषणसे युक्त कर्णके सेनापति बन जानेके पश्चात भी कोई प्रतिष्ठित राजा उसका सारथी नहीं बनना चाहता था ।
दुर्योधनने अपने दबावसे मगध नरेश शल्यको उसका सारथी बननेके लिए विवश किया और शल्य जो नकुल तथा सहदेव पांडवोंका सगा मामा था, कभी नहीं चाहता था कि कर्णको अर्जुनपर विजय प्राप्त हो । इसके लिए उसने एक मनोवैज्ञानिक विधि अपनाई । कर्णका रथ चलाते हुए भी वह उससे बार बार यह कहता रहा कि तुम अर्जुनसे हार जाओगे । इस बातको उसने अनेक प्रकारसे इतनी बार कहा कि कर्ण भी उद्विघ्न हो उठा ।
इस प्रकार एक ओर अर्जुन था, जिसके सारथी भगवान श्रीकृष्ण उसमें उत्साह आत्मविश्वाश और विजयके विचार तथा भावनाएं भर रहे थे तो दूसरी ओर दुविधाग्रस्त कर्ण था जिसके मनमें शल्य हीनता, हताशा तथा हारके विचार भर रहा था । अंतमें कर्ण अर्जुनके बाणोंसे धाराशायी हो गया और उसकी हार हुई !
इस प्रसंगमें एक मनोवैज्ञानिक सत्य छिपा हुआ है । वह सत्य हैं विचारोंकी शक्तिका । हम जिस विचारसे सम्मोहित हो जाते हैं, वैसे ही बन जाते हैं । हमारे मनोमस्तिष्कमें दूसरोंके द्वारा कही हुई बातों, दृश्यों स्मृतियों आदिके द्वारा भांति-भांतिके विचार उठते रहते हैं । जो हमारी भावनाओंको प्रभावित करनेमें सफल होते हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि हमारे मंगलमय विचारका शरीर तथा मनपर शुभ प्रभाव पडता है और अशुभ विचारका प्रभाव अशुभ पडता है ।


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