प्रेरक कथा- आत्मज्ञान हेतु सुपात्रका होना आवश्यक !


     एक बार संत ज्ञानेश्वर महाराजसे किसी भोली माईने पूछा, “महाराज, जब भगवान सभीके हैं, तो वे सभीको आत्मज्ञान क्यों नहीं देते ?” यह सुनकर संत ज्ञानेश्वर बोले, “माई, यह सत्य है कि प्रभु सभीके हैं; किन्तु सभीकी योग्यता एवं ग्रहण करनेकी क्षमता एक समान नहीं होती है, तो उसमें सभीको समान समझनेवाले भगवान, संत अथवा गुरु, क्या कर सकते हैं ? इसी कारणसे भगवान, संत या गुरुका व्यवहार सभीकी योग्यताके अनुरूप ही होता है ।” संत महाराजके उपरोक्त कथनके पश्चात भी उस भोली माईने पुनः कहा, “महाराज, योग्यता, अधिकार, पात्रता, यह सब संत या गुरुको देखनेकी क्या आवश्यकता है ?, उन्हें तो सभीको समान रूपसे आत्मज्ञान देना चाहिए ।” इसपर संत ज्ञानेश्वर महाराजने सोचा कि यह माई इस प्रकार मेरे कथनका भावार्थ नहीं समझ पाएंगी, इन्हें प्रत्यक्षमें प्रमाणितकर ही समझाना होगा ।

    संत ज्ञानेश्वर महाराज एक उच्च कोटिके संत तो थे ही, इसी कारण उन्होंने अपनी संकल्प शक्तिसे एक लीला रच डाली । कुछ क्षणों पश्चात, जिस स्थानपर माई और संत ज्ञानेश्वर वार्तालाप कर रहे थे, उसी स्थानपर एक भिखारी आया और उस माईसे एक रुपया मांगने लगा । भिखारीको देख माईने क्रोधित होकर कहा, “चल भाग यहांसे, भला चंगा है, श्रमकर पैसे अर्जित कर !” इस प्रकार भिखारीको माईने भगा दिया । इसके पश्चात संत ज्ञानेश्वरने अपनी ओरसे लीलाको चालू ही रखा और उन्होंने माईको उसके हाथके कंगनकी ओर दिखाते हुए कहा, “माई, इसमेंसे एक कंगन मुझे दे दो, पासके एक गांवमें भण्डारा कराना है ।” माईने तुरन्त ही अपने सारे कंगन उतारकर कहा, “महाराज, एक-दो क्यों, आप यह चारो कंगन मेरी ओरसे ले लीजिए और अच्छेसे भण्डारेका आयोजन कीजिए ।” इसपर संत ज्ञानेश्वर बोले, “माई, आश्चर्य है, अभी कुछ क्षण पूर्व तुमने उस भिखारीको एक रुपया नहीं दिया; किन्तु जब मैंने तुमसे एक कंगन देनेको कहा तो तुम एक कंगनके स्थानपर चारो कंगन देने लगी ।” यह सुनकर माई बोली, “महाराज, उस भिखारीको मैं एक रुपया कैसे दे देती ?, वह तो भिखारी था और आप सन्त हैं, महापुरुष हैं, उनसे आपकी तुलना कैसे कर सकते हैं ? आपको चारो कंगन देनेसे मुझे अत्यधिक आनन्द होगा, यह यदि आपने स्वीकार कर लिया तो इसे मैं अपना सौभाग्य मानूंगी  ।” तत्पश्चात संत ज्ञानेश्वर बोले, “माई, नश्वर वस्तु देते समय भी आप व्यक्तिकी योग्यता अनुसार ही देती हैं, उसी प्रकार संतजन या गुरुजन भी आत्मज्ञान या आध्यात्मिक ज्ञान, योग्य पात्रको ही देना चाहते हैं; परन्तु तब भी वह इतने दयालु होते हैं कि सभीको उनकी योग्यतासे कुछ अधिक दे ही देते हैं, तथापि यदि कोई इसकी महत्ताको न समझ पाए तो इसमें उनका क्या दोष ?”



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