मोह ही बंधनका है मूल कारण


यह संसार मायाका जाल है । इससे मुक्त होनेका प्रयास किए बिना मुक्ति नहीं मिलती । एक बार गुरु वशिष्ठसे उनके एक शिष्यने पूछा, “गुरुदेव, सांसारिकताके मोहमें फंसे संशयग्रस्त प्राणी आध्यात्मिक उन्नति क्यों नहीं कर पाते ?”                              

वशिष्ठने शिष्यके प्रश्नका उत्तर देने हेतु एक कथा सुनाई –

एक आमके वृक्षपर बहुतायतमें फल लगे हुए थे । एक पका आम वृक्षमें लगे रहनेके मोहसे मुक्त नहीं हो पाया । वृक्षका रक्षक पके आमोंकी खोजमें वृक्षपर चढ गया और सभी पके आम तोडने लगा; किन्तु वह पका आम पत्तोंकी ओटमें ऐसा छिपा कि उद्यानपालककी (मालीकी) दृष्टि उसपर न पडी । माली नीचे उतर गया । पका हुआ आम यह सब देखकर कुछ समयतक प्रसन्न रहा । दूसरे दिन उसने देखा कि उसके सभी मित्र रूपी पके आम जा चुके थे । केवल उसीका मोह उस वृक्षसे नहीं छूटा था । अब उसे अपने मित्र आमोंका स्मरण पीडा पहुंचाने लगा । वह सोचता कि नीचे कूद जाऊं और अपने मित्रोंसे जा मिलूं; किन्तु उसे पेडका मोह अपनी ओर खींचने लगता । आम इसी संभ्रममें (ऊहापोहमें) पडा रहा । संशयका यह कीडा उसे धीरे-धीरे खाने लगा । शीघ्र ही आम सूखने लगा और एक दिन वह बस गुठली और सूखे छिलकेके रूपमें ही रह गया । अब उसकी ओर कोई नहीं देखता था । अपना आकर्षण खो देनेके कारण आमको पश्चाताप होने लगा ।

वह सोचने लगा कि वह संसारकी कोई सेवा भी नहीं कर सका, न किसीके उपयोगमें आ सका, मेरा तो जीवन ही व्यर्थ हो गया और उसका अंत भी ऐसा दु:खद होनेवाला है । अंततः एक दिन वायुवेग आया और वह शाखासे विलग हो नीचे गिर गया । आगे वशिष्ठ ऋषिने कहा, “वत्स, संसारमें रहनेवाले प्राणियोंका भी सांसारिकतासे मोह नहीं छूटता । वे ज्ञानवान होकर भी यही सोचते रहते हैं कि अब निकलें, तब निकलें और एक दिन ऐसा आता है कि उन्हें संसार छोडकर जाना ही पडता है । भ्रमसे ग्रस्त लोग उसी आमकी भांति न इधरके रहते हैं न उधरके ।” शिष्यको अपना उत्तर मिल चुका था ।



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