महर्षि वेदव्यासने एक कीडेको तीव्रतासे भागते हुए देखा । उन्होंने उससे पूछा, “हे क्षुद्र जन्तु ! तुम इतनी तीव्रतासे कहां जा रहे हो ?” उनके प्रश्नने कीडेको चोट पहुंचाई और वह बोला, “हे महर्षि ! आप तो इतने ज्ञानी हैं । यहां क्षुद्र कौन है और महान कौन ? क्या इस प्रश्न और उसके उत्तरकी उचित परिभाषा सम्भव है ?” कीडेकी बातने महर्षिको निरुत्तर कर दिया ।
तथापि उन्होंने उससे पूछा, “अच्छा यह बताओ कि तुम इतनी तीव्रतासे कहां जा रहे हो ?” कीडेने कहा, “मैं तो अपने प्राण बचानेके लिए भाग रहा हूं । देख नहीं रहे, पीछेसे कितनी तीव्रतासे बैलगाडी चली आ रही है ।” कीडेके उत्तरने महर्षिको चौंकाया । वे बोले, “तुम तो इस कीट योनिमें पडे हो । यदि मर गए तो तुम्हें दूसरा और उत्तम शरीर मिलेगा ।”
इसपर कीडा बोला, “महर्षि ! मैं तो इस कीट योनिमें रहकर कीडेका आचरण कर रहा हूं; परन्तु ऐसे प्राणी असङ्ख्य हैं, जिन्हें विधाताने शरीर तो मनुष्यका दिया है; परन्तु वे मुझसे भी क्षुद्र आचरण कर रहे हैं । मैं तो अधिक ज्ञान नहीं पा सकता; किन्तु मानव तो श्रेष्ठ शरीरधारी है, उनमेंसे अधिकतर ज्ञानसे विमुख होकर कीडोंकी भांति आचरण कर रहे हैं !” कीडेकी बातोंमें महर्षिको सत्यता दृष्टिगत हुई । वे सोचने लगे कि निस्सन्देह जो मानव जीवन पाकर भी देहासक्ति और अहंकारसे बंधा है, जो ज्ञान पानेकी क्षमता पाकर भी ज्ञानसे विमुख है, वह कीडेसे भी क्षुद्र हैं ।
महर्षिने कीडेसे कहा, “नन्हें जीव ! चलो हम तुम्हारी सहायता कर देते हैं । तुम्हें उस पीछे आनेवाली बैलगाडीसे दूर पहुंचा देता हूं ।” कीडा बोला, “किन्तु मुनिवर श्रमरहित पराश्रित जीवन, विकासके द्वार बन्द कर देता है ।” कीडेके कथनने महर्षिको ज्ञानका नूतन सन्देश दिया ।
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