प्रेरक कथा – शिष्यकी परीक्षा


वैराग्य किसीको भी और कभी भी हो सकता है; किन्तु इसके लिए भी ईश्वरकी कृपा होना आवश्यक है । वैरागियोंकी चर्चामें भर्तृहरिका(भरथरी) नाम प्रमुखतासे लिया जाता है । उज्जयिनीके (उज्जैन) राजा भर्तृहरिके पास ३६५ पाकशास्त्री(रसोइए) थे, जो राजा और उसके परिवार तथा अतिथियोंके भोजन बनानेके लिए नियुक्त थे । एक पाकशास्त्रीको वर्षमें केवल एक ही दिन भोजन बनानेका अवसर मिलता था; किन्तु इस प्रकारके ऐश्वर्यपूर्ण जीवन शैलीवाले राजा भर्तृहरि जब गुरु गौरक्षनाथजीकी(गोरखनाथ) शरणमें चले गए तो भिक्षाटनकर जीवनयापन करने लगे  थे ।

एक बार गुरु गोरखनाथजीने अपने शिष्योंसे कहा, “देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकारको जीत लिया है और दृढनिश्चयी है ।” शिष्योंने कहा, “गुरुजी ! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहां ३६५ तो केवल पाककला विशेषज्ञ ही रहते थे । ऐसे भोग विलासके वातावरणसे आए हुए राजा, कैसे काम, क्रोध, लोभरहित हो गए ?” गुरु गोरखनाथजीने राजा भर्तृहरिसे कहा, “भर्तृहरि ! जाओ, भंडारेके लिए वनसे काष्ठ(लकडियां) ले आओ ।” राजा भर्तृहरि नंगे पांव गए, वनसे लकडियां एकत्रितकरके सिरपर बोझ उठाकर ला रहे थे । गोरखनाथजीने दूसरे शिष्योंसे कहा, “जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझ गिर  जाए ।” शिष्यगण गए और ऐसा धक्का मारा कि बोझ गिर गया और भर्तृहरि भी  गिर गए । भृर्तहरिने बोझ उठाया; किन्तु न मुखपर तनाव था, न नेत्रोंमें क्रोध । गुरुजीने शिष्योंसे कहा,  “देखा ! भर्तृहरिने क्रोधपर विजय पा ली है ।”

शिष्य बोले, “गुरुजी ! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए ।” थोडासा आगे जाते ही गुरुजीने योगशक्तिसे एक राजप्रसाद(महल) रच दिया । गोरखनाथजी भर्तृहरिको राजप्रसाद दिखा रहे थे । सुन्दर युवतियां एवं नाना प्रकारके व्यंजन आदिसे सेवक उनका आदर सत्कार करने लगे ।  भर्तृहरि युवतियोंको देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरोंपर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गए ।

गोरखनाथजीने शिष्योंको कहा, “अब तो तुम लोगोंको विश्वास हो ही गया है कि भरथरीने काम, क्रोध, लोभ आदिको जीत लिया है ।” शिष्योंने कहा, “गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिए ।” गोरखनाथजी ने कहा, “अच्छा ।” और भर्तृहरिसे बोले, “भर्तृहरि, हमारा शिष्य बननेके लिए परीक्षा देनी पडती है । तुमको एक माह मरुभूमिमें नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी ।” भर्तृहरि अपने  निर्दिष्ट मार्गपर चल पडे । पर्वतीय प्रदेश लांघते-लांघते राजस्थानकी मरुभूमिमें पहुंचे । धधकती बालू, प्रचंड धूप, मरुभूमिमें पांव रखो तो बस जल जाए । एक दिन, दो दिन, यात्रा करते-करते छः दिन बीत गए । सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्तिसे अपने प्रिय चेलोंको भी साथ लेकर वहां पहुंचे । गोरखनाथजी बोले, “देखो, यह भर्तृहरि जा रहा है । मैं अभी योगबलसे वृक्ष खडा कर देता हूं । वृक्षकी छायामें भी नहीं बैठेगा ।” अकस्मात वृक्ष खडा कर दिया । चलते-चलते भर्तृहरिका पांव वृक्षकी छायापर आ गया तो ऐसे उछल पडे मानो अंगारोंपर पैर पड गया हो ।

“मरुभूमिमें वृक्ष कैसे आ गया ?  छायावाले वृक्षके नीचे पांव कैसे आ गया ? गुरुजीकी आज्ञा थी मरुभूमिमें यात्रा करनेकी ।” कूदकर दूर हट गए । गुरुजी प्रसन्न हो गए कि देखो ! कैसे गुरुकी आज्ञा मानता है । जिसने कभी पांव कुथासे(गलीचेसे) नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमिमें चलते-चलते वृक्षकी छायाका स्पर्श होनेसे अंगारे जैसा अनुभव करता है । गोरखनाथजी मन ही मनमें शिष्यकी दृढतापर प्रसन्न हुए; किन्तु और शिष्योंके मनमें ईर्ष्या थी । शिष्य बोले, “गुरुजी ! यह तो ठीक है: परन्तु परीक्षा अभी भी अपूर्ण है ।” गोरखनाथजी (रूप परिवर्तितकर) भर्तृहरिसे मिले और बोले, “तनिक छायाका उपयोग कर लो ।” भर्तृहरि बोले, “नहीं, मेरे गुरुजीकी आज्ञा है कि नंगे पांव मरुभूमिमें   चलूं ।” गोरखनाथजीने सोचा, “अच्छा ! कितना चलते हो देखते हैं ?” थोडा आगे गए तो गोरखनाथजीने योगबलसे कांटे उत्पन्न कर दिए । ऐसी कंटीली झाडी कि कंथा (फटे-पुराने कपडोंको जोडकर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया । पांवोंमें शूल चुभने लगे, तथापि भर्तृहरिने कोई प्रतिक्रियातक नहीं दी । भर्तृहरि(भरथरी) तो और अंतर्मुख हो गए, “यह सब स्वप्न है, गुरुजीने जो आदेश दिया है, वही तपस्या है । यह भी गुरुजीकी कृपा है ।”

अंतिम परीक्षाके लिए गुरु गोरखनाथजीने अपने योगबलसे प्रबल ताप उत्पन्न किया । तृष्णाके(प्यासके)  मारे भर्तृहरिके प्राण कंठतक आ गए । तभी गोरखनाथजीने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खडाकर दिया, जिसके नीचे शीतल जलसे भरा घट(मटका) और सोनेका चषक(गिलास) रखा था । एक क्षण तो भर्तृहरिने उसकी ओर देखा; परन्तु तत्काल भान हुआ कि कहीं गुरु आज्ञा भंग तो नहीं हो रही है ? उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामनेसे गोरखनाथजी आते दिखाई दिए । भर्तृहरिने उन्हें दंडवत प्रणाम किया । गुरुजी बोले, “शोभनम्, शोभनम् (शाबाश) भर्तृहरि, मैं तुमसे प्रसन्न हूं, वर मांग लो । अष्टसिद्धि दे दूं, नवनिधि दे दूं ? तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिए, युवतियां तुम्हारे चरण पखारनेके लिए तत्पर थीं; किन्तु तुम उनके मोहमें  नहीं आए । तुम्हें जो मांगना है, वो मांग लो ।” भर्तृहरि बोले, “गुरुजी ! केवल आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया । शिष्यके लिए गुरुकी प्रसन्नता सब कुछ है । आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे कोटि-कोटि  पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गए ।” गोरखनाथ बोले, “नहीं भर्तृहरि ! अनादर मत करो । तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लेना ही पडेगा, कुछ-न-कुछ मांगना ही पडेगा ।” इतनेमें रेतमें एक चमचमाती हुई सूई दिखाई दी । उसे उठाकर भर्तृहरि बोले, “गुरुजी ! कंठा फट गया है, सूईमें यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंथा सी लूं ।”

गोरखनाथजी और अधिक प्रसन्न हुए । सोचने लगे ! कितना निरपेक्ष है, अष्टसिद्धि-नवनिधियां कुछ नहीं चाहिए । मैंने कहा कुछ मांगो, तो बोलता है कि सूईमें धागा डाल दो । गुरुका वचन रख लिया । “कोई अपेक्षा नहीं ? भर्तृहरि, तुम धन्य हो गए ! कहां उज्जयिनीका सम्राट नंगे पांव मरुभूमिमें । एक मास भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिनोंमें ही परीक्षामें उत्तीर्ण हो गए ।”

वैरागी हो या संसारी । परीक्षा तो प्रत्येक चरण पर देनी ही पडती है । किन्तु सफल वही होता है जो उत्तीर्ण अथवा अनुत्तीर्ण होनेकी चिंता त्याग कर अखंड कर्मरत रहता है; और यदि वह साधक है तो अविरत साधनारत रहता है । इस कथासे शिक्षण प्राप्त करते हुए हमें भी इसी मार्गका अनुसरण करना चाहिए ।

गुरु, शिष्यकी योग्यता और भाव दोनोंको ही जानते हैं, वे शिष्यकी यदि परीक्षा लेते हैं तो मात्र संसारको उसकी पात्रता सिद्ध करने हेतु ही लेते हैं । उसीप्रकार खरे शिष्यको अपने श्रीगुरुकी शक्ति और उनकी दी हुई आज्ञापर पूर्ण श्रद्धा होती है कि वे उसे अवश्य ही पूर्ण करवा लेंगे ! शिष्यकी भक्तिमें गुरुकी शक्ति निहित होती है ।



One response to “प्रेरक कथा – शिष्यकी परीक्षा”

  1. राणी says:

    बहुत अछा जय गुरुदेव!!!!!1

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सम्बन्धित लेख


विडियो

© 2021. Vedic Upasna. All rights reserved. Origin IT Solution