महान संत स्वामी रामकृष्ण परमहंस


एक व्यसनी व्यक्ति था । वह अत्यधिक शराब पीता था और अपने इस व्यसनसे (बुरी आदतसे) दु:खी भी  था । अपनी इसी समस्याको लेकर वह रामकृष्णजीके पास गया और बोला – ‘प्रभु, मैं अपने मद्य पीनेकी व्यसनके कारण अत्यधिक कष्टमें हूं और इसे छोडना चाहता हूं; किन्तु यह व्यसन मुझसे छूटता नहीं ।’
रामकृष्णजीने उसे दूसरे दिन प्रातःकाल आनेको कहा ।
वह व्यक्ति प्रातःकाल परमहंसजीके पास गया और उन्हें बाहरसे बुलाया  ।
परमहंसजीने अंदरसे चिल्लाते हुए कहा- ‘पुत्र मुझे बचाओ, मुझे बचाओ ।’
परमहंसजीके पीडीत स्वरको सुनकर वह व्यक्ति अंदर भागा और अंदरका दृश्य देखकर चकित रह गया ।

उसने देखा कि परमहंसजी एक स्तंभको (खम्बेको) पकडकर खडे हैं और चिल्ला रहे हैं कि पुत्र मुझे बचाओ ! ये खम्बा मुझे छोड ही नहीं रहा है ।

वह व्यक्ति आश्चर्यसे परमहंसजीसे बोला- ‘प्रभु, आप कैसा परिहास (मजाक) कर रहे हैं ?’, इस स्तम्भने आपको पकडकर नहीं रखा है, अपितु आप इस खम्बेको पकडकर खडे हैं । आप इसे छोड दें, यह अपने आप छूट जाएगा । परमहंसजीने तब उसे समझाते हुए कहा – ‘पुत्र, जिस प्रकार यह स्तम्भ मुझे पकडकर नहीं खडा था अपितु मैं इसे पकडकर खडा था और मेरे छोडते ही यह मुझसे विभक्त हो गया, ठीक इसी प्रकार यह मद्यका व्यसन भी है । इस बुराईने तुम्हें नहीं पकडा है अपितु तुम इस बुराईको पकडकर खडे हो । जिस दिन तुम इस व्यसनको छोडनेका संकल्प कर लोगे, उसी दिन यह तुमसे छूट जाएगा ।’ परमहंसजीकी यह बात सुनकर उस व्यक्तिने उसी दिन मद्य न पीनेका संकल्प किया और सदा सदाके लिए मद्यपान करना छोड दिया ।

संभव है, यह दृष्टांत आपने पहले सुना हो अथवा पढा हो । यदि ऐसा है तो विचारणीय यह है कि इससे हमने क्या सीखा ? प्रत्येक घटना अथवा अनुभूति हमें ईश्वरीय संदेश होता है । यदि हम इस प्रकारके प्रसंगोंको मात्र प्रसंग मानकर भुला दें तो यह एक प्रकारसे ईश्वरीय वाणीको अनसुना करना ही होगा । किन्तु इनसे शिक्षण प्राप्त करते हुए इन्हें जीवनमें उतारें तो स्वयंके साथ समाजका भी कल्याण कर सकते हैं । व्यसन चाहे कोई भी हो, वह हमारी दुर्बलताको ही दर्शाता है । सच्चा साधक इन व्यसनोंपर अपने आत्मबलसे विजय पाकर साधना मार्गपर आगे बढता है ।



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