साधक क्यों करे स्वाभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया ? (भाग – २)


साधनाका एक अर्थ है, मनको साधना । मन अर्थात अनेक जन्मोंके संस्कारोंका (विचारकेन्द्रोंके पुंज) । ये भिन्न संस्कार ही अहंके लिए कारणीभूत होते हैं और जीवको मायाके जालमें बद्ध करते हैं । संस्कारोंको नष्ट करने हेतु शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक स्तरपर प्रयास करने होते हैं । वर्तमान कालमें सामान्य व्यक्तिकेके सात्त्विकता निम्न स्तरपर पहुंच चुकी है; अतः अधिकांश सामान्य साधकोंका भी आध्यात्मिक स्तर ३० से ४५ % तक होता है; फलस्वरूप भाव एवं आध्यात्मिक स्तर अनुरूप उनमें इच्छाशक्तिका प्रमाण कम होता है । ऐसे स्तरपर मनके संस्कारोंको नष्ट करने हेतु आध्यात्मिक स्तर अधिक फलदायी नहीं होते; अतः मानसिक स्तरके प्रयासोंको यदि सातत्यसे किया जाए तो मनको नियन्त्रित करना अधिक सरल होता है । ऐसे ही मानसिक स्तरके प्रयासको स्वाभावदोष निर्मूलन कहते हैं ।
इसे एक उदहारणसे समझ लेते हैं, मान लें, एक साधक प्रतिदिन ग्यारह माला जप करता है; किन्तु उसे देर रात तक जग कर दूरदर्शन संचपर उसे रुचि अनुसार कोई कार्यक्रम देखना अच्छा लगता है । वह प्रातःकाल उठकर अपना नामजप बढाना चाहता है; किन्तु अपनी दूरदर्शनपर देर रात तक कार्यक्रम देखनेके अपने व्यसनको नहीं छोड पाता है । देर रात तक प्रकृति विरुद्ध जागनेसे उसके मन एवं बुद्धिपर सूक्ष्म काला आवरण निर्माण होता है एवं उस कालमें रज-तम प्रधान कार्यक्रम देखनेसे उसका आवरण और अधिक बढ जाता है, जिसकारण वह प्रातःकाल उठ नहीं पाता और रज-तमका आवरण बढते रहनेसे नामजपके समय मन भी एकाग्र नहीं होता । आजके कालमें अधिकांश साधक ऐसे ही किसी न किसी व्यसनसे व्यथित हैं; किन्तु क्या करें यह समझमें उन्हें नहीं आता है । ऐसे स्थितिमें अपनी चूकें लिखकर, अपने मनको योग्य स्वयंसूचना देनेसे यह दोष दूर होनेमें सहायता मिलती है; जिससे साधनाको भी गति मिलती है । तनुजा ठाकुर (२४.९.२०१७)



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