साधक किसे कहते हैं ? (भाग – १०)


साधकत्व एवं त्यागका सीधा सम्बन्ध होता है । जिसमें त्यागकी वृत्ति जितनी अधिक होती है, वह उतना ही अच्छा साधक होता है । साधक, अपने तन, मन, धन, प्राण, बुद्धि औरअहंंका  अत्यन्त सहजतासे ईश्वरप्राप्ति, धर्मरक्षण या गुरुकार्य हेतु अर्पण करता है और यही त्याग उसके साधकत्वका परिचय देता है । जब यही त्याग ५५ % तक पहुंच जाता है तो कोई उच्च कोटिके सन्त, उस साधकको अपने शिष्यके रूपमें स्वीकार कर लेते हैं और जब त्यागका प्रमाण ७० % तक पहुंच जाता है तो वह सन्त पदपर आसीन हो जाता है । इस सिद्धान्तसे ही त्यागका महत्त्व अध्यात्ममें कितना अधिक है ?, यह ज्ञात होता है । कलियुगमें द्रुत गतिसे आध्यात्मिक प्रगति हेतु त्यागका सर्वाधिक महत्त्व है; क्योंकि कलियुगके अधिकांश जीवोंमें यह प्रवृत्ति नगण्य मात्र ही होती है; सत्य तो यह है कि आध्यात्मिक स्तर बढाने हेतु या द्रुत गतिसे आध्यात्मिक प्रगति करने हेतु त्यागका विशेष महत्त्व है ।



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