साधक किसे कहते हैं ? (भाग – ६)


साधकत्वके गुणोंको शीघ्रतासे विकसित करने हेतु या आत्मसात करने हेतु समष्टिमें रहना अधिक पोषक सिद्ध होता है । समष्टिमें रहनेका एक उत्तम साधन है, किसी सन्तके आश्रममें रहना । जब हम आश्रममें रहते हैं तो जो साधक हमसे साधनामें आगे हैं, वे किन गुणोंके कारण द्रुतसे आध्यात्मिक प्रगति कर रहे हैं, यह हमें ज्ञात होता है । साथ ही आश्रममें रहनेसे हमें गुरु या उन्नत साधकोंसे प्रत्येक कृति करते समय आध्यात्मिक दृष्टिकोण मिलता है, जिससे प्रत्येक क्षण हमारा गुण संवर्धन होता है । गृहस्थ साधकोंके लिए यदि आश्रममें अधिक समय रहना सम्भव न हो तो अवकाशके समय कुछ दिवस जाकर रहना चाहिए एवं वहांसे सीखकर आए हुए तथ्योंको अपने जीवनमें उतारनेका प्रयास करना चाहिए । उन्होंने अपने घरमें रहते हुए समष्टि साधना (धर्मप्रसार एवं राष्ट्र तथा धर्मरक्षण हेतु प्रयत्न) करनेका प्रयास करना चाहिए । समष्टि साधना करते समय साधकोंद्वारा एवं गुरु व सन्तका जो अमूल्य मार्गदर्शन मिलता है, उससे साधकत्वके गुण विकसित करनेमें सहायता मिलती है । एक सरलसा सिद्धान्त ध्यान रखें, हमारे अन्दर जितने अधिक साधकके गुण होंगेंं, हम साधनामें उतनी ही द्रुत गतिसे प्रगति कर पाएंगे, उत्तर भारतके लोगोंमें साधकत्वका प्रमाण नगण्य है, इसकी अनुभूति, मैंने पिछले अनेक वर्षोंके धर्मप्रसारके कालमें ली है । अधिकांश उत्तर भारतीय या तो बिना व्यष्टि साधनाके समष्टि साधना करनेका प्रयास करते हैं या वे मात्र संकुचित भावसे व्यष्टि साधना करना चाहते हैं । साधकत्वके विकास हेतु व्यष्टि और समष्टि साधनाका उचित सामंजस्य अति आवश्यक हैं ।



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