साधकके गुण एवं उसका वर्तन



इस लेख अंतर्गत हम साधकके कुछ गुण एवं उसके भिन्न परिस्थितियोंमें उसके वर्तनके विषयमें जानेंगे ।

१. किसी भी परिस्थितिमें उपालम्भ न कर आनन्दी रहनेवाला

किसी भी परिस्थितिमें गुरु या ईश्वरसे जो कोई उपालम्भ (शिकायत) नहीं करता अपितु उस परिस्थितिको ईश्वरने कुछ सिखाने हेतु निर्माण किया है; यह सोचकर प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी कृतज्ञताका भाव रख, जो आनन्दपूर्वक साधनारत रहता है, वह साधक कहलानेका अधिकारी है !

२. दूसरोंका विचार करनेवाला  

हमारी कुटुम्ब व्यवस्थाका मूल आधार साधकत्व था, जहां दूसरोंकी इच्छाको प्रधानता देते हुए कुटुम्बके प्रत्येक सदस्य साधना एवं धर्माचरण करते हुए प्रेम एवं सौहार्दसे रहते थे । पूर्व कालमें एक गृहमें सौ सदस्योंका कुटुम्ब प्रेमपूर्वक, इसी साधकत्वके कारण रह पाते थे । आजकी कुटुम्ब व्यवस्था, संयुक्तसे एकल कुटुम्ब व्यवस्थामें सिमित हो गयी है जहां चार सदस्य (माता-पिता और दो बच्चे) होते हैं तब भी वे एक स्थानपर बैठकर, प्रेमपूर्वक पन्द्रह मिनिट भोजन भी नहीं कर पाते हैं । यह सब साधकत्वके ह्रासके कारण हुआ है; अतः समाजको धर्मशिक्षण देकर साधकत्व निर्माण करना अति आवश्यक है अन्यथा हमारे यहां भी पुरुष और स्त्री विदेशकी संस्कृति समान मात्र अपनी वासना तृप्ति या संतानोत्त्पत्ति हेतु एकत्र आयेंगे एवं विदेश समान यहां भी विवाह जैसी सामाजिक संस्थाकी भी आवश्यकता नहीं होगी और सनातनी हिन्दू पशुत्वकी और अग्रसर होंगे ।

३. सीखने एवं पूछनेकी प्रवृत्ति होना

जिसमें सीखनेकी वृत्ति नहीं होती, ईश्वर या गुरु उसे कभी भी सिखाते नहीं है एवं जिसमें पूछकर करनेकी प्रवृत्ति नहीं होती है, उसका बहुमूल्य समय अपने मनके अनुसार कृतियोंको कर, सीखनेमें व्यय हो जाता है; इसलिए साधकत्व निर्माण करने हेतु पूछकर लेनेकी वृत्ति निर्माण करना अति आवश्यक है । जो भी कुछ हमें नहीं आता हो एवं हमारे लिए उसे सीखना आवश्यक है तो उसे पूछकर या सीखकर लेनेमें कभी भी लज्जा नहीं होनी चाहिए एवं जिसमें सतत सीखनेकी वृत्ति होती है उसका अहम् सदैव न्यून रहता है, इसी नम्रतारुपी गुणके कारण वह साधनापथपर सदैव अग्रसर रहता है । हमारे श्रीगुरुने तो स्पष्ट शब्दोंमें कहा है कि अध्यात्म पूछ-पूछकर करनेका शास्त्र है ।

४. सेवा-भाव होना

४. अ. सभी प्रकारकी सेवाको समत्वभावसे करना 

सत्सेवासे ईश्वरीय कृपाका सम्पादन होता है; अतः अध्यात्मिक प्रगतिमें इसका विशेष महत्त्व है । सेवा बडी या छोटी, प्रमुख या गौण नहीं होती है, सेवा, सेवा होती है; अतः सत्सेवाके मध्य जो भी कर्म या कृति करने हेतु दिया जाए, वह ईश्वरीय कृपा प्राप्त करनेका माध्यम है, इस भावसे जो प्रेम एवं कृतज्ञतापूर्वक सेवा करता है वह साधक होता है । सेवाका अर्थ ही है समर्पण, जिस कृतिसे तन, मन, धन या अहंका अर्पण हो वह सेवा होती हैं ।  हमारे आश्रममें देश-विदेशसे लोग आते हैं; किन्तु अधिकांश जिज्ञासु, उन्हें शारीरिक श्रमवाली सेवा करना नहीं चाहते हैं । उन्हें आश्रममें आकर नामजप करना, बातें करना या सोना चाहते हैं, ऐसे लोगोंको यह स्पष्ट बताना चाहेंगे कि आश्रम एक कर्मक्षेत्र होता है अतः वहां जाकर वे अपना एवं अन्योंका समय व्यय न किया करे ।

४. आ अपने मनके अनुसार सेवा करनेकी अपेक्षा जो सेवा दी जाती हो उसे करना   

आश्रममें आनेवाले अनेक जिज्ञासु अपनी इच्छा अनुसार या जिससे उन्हें शारीरिक श्रम अधिक न करना पडे, या कुछ नूतन न सीखना पडे, ऐसी सेवा करनेकी इच्छा दर्शाते हैं, जो साधकत्वका लक्षण नहीं है । गुरु या ईश्वरको ज्ञात है कि साधक या शिष्यके लिए कौनसी सेवा सर्वाधिक उपयुक्त हो सकती है; अतः वे उसीप्रकारकी सेवा उन्हें देते हैं, जिसमें उनका कल्याण निहित होता है । ऐसेमें वह सेवा मुझे क्यों दी गयी, इसमें अपनी बुद्धि एवं समय व्यर्थ करनेके स्थानपर उस सेवाको मैं परिपूर्णतासे कैसे कर सकता हूं, जो इसप्रकार विचार कर सेवा करता है वह साधक होता है और ऐसे साधकोंकी सेवा ईश्वर चरणों तक अवश्य ही पहुंचती एवं वह ईश्वरीय कृपाका अधिकारी बनता है ।

५. प्रत्येक परिस्थितिमें निर्विकल्प रहनेवाला

गुरु या ईश्वरके प्रति प्रत्येक परिस्थितिमें निर्विकल्प रहनेवाला ही साधक कहलानेका अधिकारी होता है । संस्कृतमें एक सुवचन है, ‘ईश्वरं यत् करोति शोभनम् करोति’ अर्थात् ईश्वर जो करते हैं, वह अच्छा ही करते हैं । गुरु, ईश्वरके प्रतिनिधि होते हैं; अतः वे जो भी करते हैं उसमें साधक या शिष्यका कल्याण ही निहित होता है । जो साधक, इस मूलभूत तत्त्वको आचरणमें सदैव लाता है, वह साधक ही भविष्यमें शिष्य कहलानेका अधिकारी बनता है ।

६. समष्टिमें रहनेवाला

६ अ. सन्तके आश्रम, समष्टि सान्निध्य प्राप्त करनेका एक सुन्दर माध्यम

साधकत्वके गुणोंको शीघ्रतासे विकसित करने हेतु या आत्मसात करने हेतु समष्टिमें रहना अधिक पोषक सिद्ध होता है । समष्टिमें रहनेका एक उत्तम साधन है, किसी सन्तके आश्रममें रहना । जब हम आश्रममें रहते हैं तो जो साधक हमसे साधनामें आगे हैं, वे किन गुणोंके कारण द्रुतसे अध्यात्मिक प्रगति कर रहे हैं, यह हमें ज्ञात होता है । साथ ही आश्रममें रहनेसे हमें गुरु या उन्नत साधकोंसे प्रत्येक कृति करते समय आध्यात्मिक दृष्टिकोण मिलता है जिससे प्रत्येक क्षण हमारा गुण संवर्धन होता है । अन्य साधकोंके साथ, हम उनके गुण-दोषको स्वीकार कर, प्रेमपूर्वक वर्तन करते हैं, इससे हम सहनशील बनते हैं । एक सरल सा समीकरण ध्यानमें रखें हममें जितना अधिक साधकत्व होगा हम उतना ही अधिक समष्टिमें घुलमिल कर आनन्दपूर्वक रह पायेंगे । वहीँ साधकत्वहीन साधकोंके लिए समष्टिमें तो क्या प्रेमसे अपने घरपर भी नहीं रह पाते हैं ।

आ. गृहस्थ साधकका समष्टि साधना करनेसे समष्टि सान्निध्य प्राप्त होना

गृहस्थ साधकोंके लिए यदि आश्रममें अधिक समय रहना सम्भव न हो तो अवकाशके समय कुछ दिवस जाकर रहना चाहिए एवं वहांसे सीख कर आये हुए तथ्योंको अपने जीवनमें उतारनेका प्रयास करना चाहिए । उन्होंने अपने घरमें रहते हुए समष्टि साधना(धर्मप्रसार एवं धर्मरक्षण हेतु प्रयत्न) करनेका प्रयास करना चाहिए । समष्टि साधना करते समय साधकोंका संग एवं गुरु और सन्तका जो अमूल्य मार्गदर्शन मिलता है, उससे साधकत्वके गुण विकसित करनेमें सहायता मिलती है । एक सरलसा सिद्धान्त ध्यान रखें, हमारे अन्दर जितना अधिक साधकके गुण होंगे हम साधनाके उतनी ही द्रुत गतिसे प्रगति कर पायेंगे, उत्तर भारतके लोगोंमें साधकत्वका प्रमाण नगण्य है, इसकी अनुभूति, मैंने पिछले १९ वर्षोंके धर्मप्रसारकी कालमें ली है । अधिकांश उत्तर भारतीय या तो बिना व्यष्टि साधनाके समष्टि साधना करनेका प्रयास करते हैं या वे मात्र संकुचित भावसे व्यष्टि साधना करना चाहते हैं । साधकत्वके विकास हेतु व्यष्टि और समष्टि साधनाका उचित सामंजस्य अति आवश्यक हैं ।

७. स्थिर बुद्धि एवं दृढ निश्चयका गुण होना

अस्थिर बुद्धि एवं अशान्त चित्तवाला व्यक्ति कभी भी साधना नहीं कर सकता है । साधनाकालमें अनेक बार ईश्वरेच्छा अनुरूप हमें विपरीत परिस्थितयोंमें रहना पड सकता है । अस्थिर प्रवृत्तिवाला व्यक्ति ऐसी स्थितिमें साधना नहीं कर सकता । कुछ दिवस पूर्व मध्य प्रदेशसे एक मैकाले पुरस्कृत बुद्धीजीवी युवा जिज्ञासु, हमारे आश्रममें कुछ दिवस साधना कर रहे थे; उनमें साधकके अनेक गुण थे; किन्तु उनकी अस्थिर बुद्धि, अशान्त मन एवं शंकालु स्वाभाव, उनके मनमें प्रत्येक सकारात्मक प्रसंगमें भी विकल्प निर्माण कर देती थी चूंकि बुद्धि तो कुशाग्र थी किन्तु विवेकयुक्त नहीं थी; अतः वह अशान्त मनको नियन्त्रित करनेमें असक्षम थी । वे स्वयं भी सदैव विकल्पमें रहते थे एवं अन्य साधकोंमें भी विकल्प निर्माण करते थे और अपने दोष एवं चूकको मान्य कर, उसमें सुधार करना ही नहीं चाहते थे; अतः मुझे उन्हें आश्रमसे घर यह कहकर भेजना पडा कि उनमें साधनाकी पात्रता नहीं । धर्मप्रसारके मध्य जब भी ऐसे साधकोंको मैंने साधना बताई है तो मैंने पाया है कि उन्हें अधिक समय भी देना पडता है एवं उनके विकल्पमें ही अनेक वर्ष निकल जाते हैं; अतः साधनामें द्रुत गतिसे प्रवास हेतु साधकोंमें निश्चयात्मक बुद्धिका होना अति आवश्यक है ।

८. मितभाषी होना या अनावश्यक बातें न करना

वाचालता, यह एक दुर्गुण है, साधनाकालमें अन्तर्मुख होने हेतु मितभाषी होना या जितना आवश्यक हो उतना बोलना अति आवश्यक होता है । आज अनेक लोग जो थोडी-बहुत साधना करते हैं, वे अपनी साधनासे अर्जित शक्तिको अनावश्यक बातें करनेसे व्यय(खर्च) कर देते हैं । जब हम समष्टिके कार्य हेतु बातें करते हैं तो उस समय ईश्वरीय तत्त्वसे हमें शक्ति प्राप्त होती है; किन्तु अन्य समय जब हम अनावश्यक या माया सम्बन्धित बोलते हैं तो हमारी शक्तिका अपव्यय होता है तथा अनावश्यक बोलते समय मिथ्या भाषण करना, किसीका उपहास करना, किसीके विषयमें अनर्गल बातें करना, अपशब्द बोलना, जैसे कृतियां अनेक लोगोंसे सहज ही होती है जिससे हमारी वाणी अशुद्ध होती है एवं वृत्ति बहिर्मुख बनती है; अतः साधकने कहां, कितना बोलना चाहिए, इसका भी अभ्यास अपने विवेकसे सतत करना चाहिए ।
९. राष्ट्राभिमानी एवं धर्माभिमानी एवं निडर होना

कुछ समय पूर्व मध्य प्रदेशके रीवा नगरसे एक युवा जिज्ञासु साधना, हेतु उपासनाके आश्रम आकर रुके थे । एक दिवस हम उन्हें राष्ट्रीय हिन्दू आन्दोलनमें अपने साथ देहलीके जन्तर-मन्तर, प्रदर्शन हेतु लेकर गए । वहां प्रत्येक मास, राष्ट्र एवं हिन्दू धर्मविरोधी सामयिक विषयोंपर प्रदर्शनका आयोजन किया जाता है, जिसमें भिन्न हिन्दुत्त्ववादी एवं राष्ट्रनिष्ठ संघटन भाग लेकर अपना विरोध, वैध मार्गसे व्यक्त करते हैं । जब उस युवाने देखा कि प्रदर्शनके आस-पास कुछ पुलिस एवं पत्रकार मंडरा रहे हैं तो वे पूरी प्रदर्शनके मध्य अपना मुख सबसे छिपानेका प्रयास कर रहे थे । मुझे समझमें आ गया कि वे भीरु प्रकृतिका धर्मनिरपेक्षतासे दंशसे पीडित युवक है, जो स्वयंको समाजके समक्ष इस रूपमें प्रकट नहीं करना चाहते हैं ।
जो व्यक्ति राष्ट्र एवं धर्मपर आये संकटके प्रतिकार करनेमें भयभीत हो जाये, वह साधक नहीं हो सकता, साधकमें तो कूट-कूटकर क्षात्रवृत्ति भरी होती है । जिस राष्ट्रने हमारा और हमारे पूर्वजोंका पोषण कर, हमें इतना कुछ दिया है, उसके प्रति उदासीन होना, यह तो पराकोटिकी कृतघ्नता है, ऐसे कृतघ्न लोग स्थूल राष्ट्रके प्रति यदि अपना उत्तरदायित्व नहीं निभा सकते हैं तो सूक्ष्म धर्मके प्रति अपना प्रेम कैसे प्रकट कर सकते हैं ! और धर्म बिना मोक्ष असम्भव है; अतः राष्ट्र एवं धर्मपर आये संकटकी उपेक्षा कर साधना करनेका प्रयास करनेवाला व्यक्ति, साधक कहलानेका अधिकारी हो ही नहीं हो सकता ! – तनुजा ठाकुर



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