साधकके गुण (भाग-१०)


धर्म एवं अध्यात्मके सीखे हुए तथ्योंको व्यवहारमें लाना

साधकका एक महत्त्वपूर्ण गुण होता है कि उसकी कथनी और करनीमें अन्तर नहीं होता ! उसमें सीखनेकी वृत्ति बहुत अधिक होती है | वह जहां भी साधना हेतु पोषक तथ्योंको सुनता है या पढता है, उसे अपने जीवनमें उतारनेका प्रयास करता है ! वह लोगोंको जो उपदेश देता है, उसे प्रथम अपने जीवनमें आत्मसात करता है, यह उसकी विशेषता होती है; इसलिए उसकी वाणीमें चैतन्य होता है और वह समाजका आदर्श होता है | अर्थात जिस व्यक्तिके कथनी और करनीमें जितना भेद होता है, उसकी प्रामाणिकता भी उतनी ही न्यून होती है और साधकत्व भी उतना ही कम होता है ! आजके अधिकांश लोग जो समाजका आदर्श बनकर घूम रहे हैं, उनके कथनी और करनीमें आकाश और पातालका अंतर होता है; इसलिए उनकी बातें कोई नहीं सुनता, ऐसे तथाकथित आदर्शोंको लोग कुछ कालमें ही भूल जाते हैं !

सन्त, धर्म और अध्यात्मका मूर्त स्वरूप होते हैं और साधक उनके पदचिन्होंपर चलनेवाला जीव होता है, उसके प्राण चले जाएं तो चले जाएं, वह अपने आदर्शोंके साथ समझौता नहीं करता है, उसके ये आदर्श ही उसकी शक्ति होती है ! पूर्वकालमें ऐसे अनेक लोगोंने अपने आदर्शोंके साथ समझौता न कर समाजके समक्ष आदर्श प्रस्तुत किए हैं, पुनः ऐसे ही साधकत्वके गुणवाले समाजको निर्माण करनेकी आवश्यकता है, इस हेतु समाजके अंतर्मनपर धर्म, साधना और अध्यात्मका महत्त्व अंकित करना अति आवश्यक है और यह धर्मसापेक्ष हिन्दू राष्ट्रमें ही सम्भव है; अतः सभी साधकोंने अपना सम्पूर्ण बल हिन्दू राष्ट्रकी स्थापना हेतु लगाना चाहिए |



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