साधकके गुण (भाग – ११)
गुरु या ईश्वरके प्रति निर्विकल्प रहना
साधनाके पथपर श्रद्धा और भावका अत्यधिक महत्त्व होता है, वस्तुत: गुरुतत्त्व या ईश्वरीय तत्त्व साधककी भक्ति अनुरूप ही कार्य करता है | अनेक बार हमें लगता है कि समाज या अन्य व्यक्ति हमारी साधनामें अडचनें निर्माण करते हैं; किन्तु मेरा मानना है कि साधकके जीवनमें विषम परिस्थियोंका निर्माण मात्र और मात्र उसकी अन्तर्मुखता बढाने हेतु ईश्वरीय नियोजन अनुसार होता है जिससे उसकी साधना और श्रद्धामें वृद्धि होती है या समाजको उसकी भक्ति ज्ञात हो ! ‘ईश्वरं यत करोति शोभनं करोति’ अर्थात ईश्वर जो करते हैं हमारे भलेके लिए करते हैं; इस तथ्यपर पूर्ण विश्वास रखकर जो निर्विकल्प साधना करता है उसका ही कल्याण होता है | जैसे सोना तपनेसे कुंदन बनता है वैसे ही विषम परिस्थियां साधकके साधकत्वको वृद्धिंगत करती है |
विकल्पयुक्त साधककी या तो बुद्धिका उपयोग अधिक होता है या उनकी श्रद्धामें कमी होती है ! अतः साधकने अपनी श्रद्धा बढाने हेतु सन्तों एवं श्रेष्ठ भक्तोंकी जीविनियोंवाले साहित्यका अभ्यास करना चाहिए तथा गुरु एवं सन्तोंकी सिखानेकी पद्धतियोंको भी बुद्धिसे समझनेका प्रयास करना चाहिए और निर्विकल्प होकर साधनारत रहना चाहिए |
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