साधकके गुण (भाग-३)


आज्ञापालन करनेवाला

साधकके सभी गुणोंमें सबसे प्रमुख गुण है, आज्ञापालन !

इतिहास साक्षी है कि जिस भी शिष्यने अपने गुरुकी आज्ञाका पालनकर साधना की है, उसका कल्याण निश्चित ही हुआ है ! वस्तुत: गुरु-शिष्य परम्परामें गुरु अपने ज्ञान, भक्ति और वैराग्यकी थाती उन्हें ही देते हैं जो गुरुके मनमें जो हो, उसे करनेका प्रयास करता है ! किन्तु यह एक उत्तम शिष्यके लिए ही सम्भव होता है ! अतः आरम्भमें साधकने अपनेसे जो साधनामें उन्नत है या गुरुने जिस भी साधकसे साधनाके प्राथमिक  चरणोंको सीखने हेतु कहा हो, उनकी आज्ञाका पालन करना चाहिए ! यह वृत्ति निर्माण होनेपर हम गुरुकी आज्ञाका पालन करने हेतु सिद्ध होते हैं !

अब हम यह जान लेते हैं कि आज्ञापालन किनसे नहीं होता है –

अ. जिन लोगोंमें मनमानी करनेकी वृत्ति होती है, वे आज्ञापालन नहीं कर पाते हैं !

आ. जिनमें अहंका प्रमाण अधिक होता है, वे भी आज्ञापालन नहीं कर पाते हैं |

इ. जो आवश्यकतासे अधिक बुद्धिका प्रयोग करते हैं, वे भी आज्ञाका विश्लेषण करनेमें ही अपना समय गंवा देते हैं और उनसे भी आज्ञापालन नहीं हो पाता है |

ई. आज्ञापालन भी एक संस्कार होता है, मैंने देखा है कि जो पालक अपने बच्चोंमें आज्ञापालनका संस्कार नहीं अंकित कर पाते हैं, ऐसे लोगोंके लिए भविष्यमें किसीकी भी बातको मानना बहुत ही कठिन होता है | वहीं सेना या पुलिसके लोगोंमें यह संस्कार ठूंस-ठूंसकर भरा जाता है; इसलिए वे लोग भी आज्ञापालन कर पाते हैं; किन्तु ऐसे सभी लोग साधना करेंगे, यह आवश्यक नहीं, इस हेतु और भी अन्य घटक आवश्यक होते हैं |

पूर्व कालमें गुरु अपने शिष्योंको आज्ञापालन न करनेपर कठोर दण्ड दिया करते थे; क्योंकि वे चाहते थे कि यह गुण उनमें आत्मसात हो जाए तो उनकी आगेकी आध्यात्मिक यात्रा सुलभ हो जाएगी; किन्तु मैकालेकी निधर्मी शिक्षण पद्धतिने तो एक अत्यन्त ही उद्दण्ड पीढीको जन्म दिया है, जिससे आज सभी पालक और शिक्षकगण दुखी हैं ! वस्तुत: जैसा हम बोते हैं, वैसा ही काटते हैं, धर्मविरहित शिक्षण पद्धतिसे और अपेक्षा भी क्या कर सकते हैं ?; इसलिए पालकोंने प्रयासकर कमसे कम घरमें तो अपने बच्चोंमें आज्ञापालनका संस्कार अवश्य ही अंकित करना चाहिए !

साथ ही, यदि आप साधक बनना चाहते हैं तो इस गुणको आत्मसात करें, इस हेतु जो बताया जाए उसे करनेका प्रयास करें, नहीं होता हो तो स्वयंसूचना देकर अपने मनमें इस गुणका संवर्धन करें !  अब इसका अर्थ यह नहीं है कि पतिने पत्नीको कहा नामजप मत करो, चूकें मत लिखो तो पत्नी वह करना आरम्भ कर दें ! आज्ञापालन करते समय यह सदैव ध्यान रखें कि क्या इस आज्ञाके पालनसे ईश्वर प्रसन्न होंगे ? जैसे एक बार किसी गुरुको माननेवाली विदेशकी कुंवारी साधिकाने मुझसे पूछा, “मेरे गुरु कहते हैं कि आप मुझसे शारीरिक सम्बन्ध बनाओ, मैं द्वंद्वमें हूं कि गुरु तो भगवान होते हैं, उनकी आज्ञाको कैसे टालूं ?; किन्तु मेरा मन ऐसे अनैतिक कार्यको करने हेतु स्वीकार नहीं कर रहा है, ऐसेमें मैं क्या करूं ?” उन्हें मैंने उत्तर दिया, “सर्वप्रथम जो गुरु अनैतिक कार्यको करने हेतु कहे, वह गुरु हो ही नहीं सकता है और आज्ञापालन करते समय सदैव यह ध्यान रखें कि क्या ईश्वर ऐसा करनेकी कभी आज्ञा दे सकते हैं या ऐसा करनेसे वे कभी प्रसन्न हो सकते हैं ?” उन्हें अपने प्रश्नका उत्तर मिल गया और वे पुलिस स्टेशन जाकर गुरुजीके विरुद्ध परिवाद प्रविष्ट की ! अतः आज्ञापालनमें किसका सुने और किसका न सुनें, इस हेतु विवेकका उपयोग करें !



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