किसी भी सेवाके लिए सदैव तत्पर रहना
गुरु या ईश्वरको यह ज्ञात होता है कि हमारी आध्यात्मिक प्रगति हेतु कौनसी सेवा पूरक होगी और वे उसीप्रकारकी सेवा हमें देते हैं ! सेवा, गुरु या ईश्वरको प्रसन्नकर उनकी कृपा पानेका एक सरल एवं सर्वोत्तम माध्यम होता है ! मात्र ईश्वरका नाम जपने या उनकी स्तुति करनेकी अपेक्षा जो साधक गुरु कार्य या ईश्वरीय कार्यके लिए अपना तन, मन, धन और बुद्धिके द्वारा सेवा करता है, वह अधिक प्रिय होता है ! इसलिए साधकने सेवा हेतु तो तत्पर होना ही चाहिए साथ ही जो सेवा मिले उसे करनेकी पूर्वसिद्धता रखनी चाहिए | अधिकांश लोग अपनी इच्छा अनुसार सेवा करना चाहते हैं, ऐसी सेवासे मात्र मानसिक लाभ मिलता है, आध्यात्मिक प्रगति नहीं होती, यह ध्यान रखें; क्योंकि यह भी मनानुसार साधना करने समान होता है | साधना एवं सेवा दोनोंके करनेके मूल उद्देश्यपर ध्यान देना चाहिए, यदि वह उद्देश्य पूर्ण नहीं होता है तो सेवा करनेका लाभ नहीं मिलता है | साधना एवं सेवाका मूल उद्देश्य होता है मन, बुद्धि एवं अहंका लयकर ईश्वरसे एकरूप होना, यदि हमें अपने मनको प्रिय सेवा या साधना करते हैं तो हमारे मनके संस्कारोंका लय नहीं होता, इसके विपरीत वह पुष्ट होता है, ऐसेमें आध्यात्मिक प्रगति नहीं होती है ! इसलिए जिस सेवाका आदेश हो, उसे मन:पूर्वक करनेका प्रयास करना चाहिए, इससे कृपाका संचार शीघ्र होता है, यह आपको क्यों बता रही हूं ?; क्योंकि मैंने पाया है कि अधिकांश साधक अपने मनके विरुद्ध नहीं जाना चाहते, कभी भी वे श्रम नहीं करना चाहते हैं; इसलिए वे अधिक श्रमवाली सेवा नहीं करना चाहते हैं तो कुछ साधक नूतन विषय नहीं सीखना चाहते हैं; इसलिए वे ऐसी सेवा करना चाहते हैं जिसमें उन्हें कुछ नूतन सीखने हेतु कष्ट न उठाना पडे !
ध्यान रहे, आप जैसे ही साधना करने हेतु संकल्पबद्ध होते हैं, ईश्वरीयतत्त्व या गुरुतत्त्व आपके मन, बुद्धि एवं अहंके लय हेतु क्रियाशील हो जाता है; किन्तु आपको यह ईश्वरीय संकेत अपने विवेकसे समझना होगा ! प्रथम चरणमें मनानुसार सेवाकर मनकी सिद्धता करें, तत्पश्चात गुरुकी आज्ञा अनुसार सेवा करें, हो सकता है आपको लगे कि जो सेवा गुरुने दी है वह मुझसे नहीं हो पाएगा; किन्तु ध्यान रखें, जब गुरु सेवा देते हैं तो वे उसे करने हेतु आवश्यक ज्ञान और शक्ति भी देते हैं, मात्र आपको गुरु तत्त्वपर श्रद्धा होनी चाहिए |
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