मैं बचपनसे ही निर्गुणी उपासक रही हूं और संभवतः इसी कारण मेरे श्रीगुरुने सदैव निर्गुण माध्यमसे मेरा मार्गदर्शन भी किया, जब मैंने अपने श्रीगुरुके मार्गदर्शनमें वर्ष 1997 में साधना आरंभ की तो मात्र दो महीनेके पश्चात उन्होंने मुझे कहा ” अब आप मेरे पास न आया करें आप जहां है वहीं साधना करें आपकी वहीं साधना होती रहेगी ” उनके संरक्षणमें वर्ष 1997 से 2008 तक साधना की इस मध्य भी अधिकांश समय मैं स्वतंत्र रूपसे भिन्न जिलोंमें कार्य करती रही, न मेरे ऊपर ध्यान देनेके लिए कोई स्थूल रूपसे मार्गदर्शक थे और न ही कोई बंधन !! और अंतमें उन्होने अपनी स्थूल छत्रछाया भी वर्ष 2009 में हटा ली। वास्तविकता यह है कि सद्गुरुको पता होता है कि किस साधकने सगुण साधना करनी है और किसने निर्गुणकी करनी है ! खरे अर्थमें सद्गुरु तो वह होते हैं जो अपने निज स्वरूप या स्थूल स्वरूपमें भी अपने शिष्यको नहीं अटकाते तभी तो सद्गुरुको परब्रह्म कहा गया है !! यद्यपि शिष्य द्वैत भावमें जब भी होता है तो सद्गुरुकी स्मृति उसके प्रत्येक सांसमें होती है !-तनुजा ठाकुर
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