स्वयं साधना करते हुए किसी औरसे साधना करवाकर लेना, खरी मानवता, खरी तपस्या और ऐसा कर्म है जो हमारे पाप और पुण्य जो संचितमें है उसे भी नष्ट करनेकी क्षमता रखता है; किन्तु यह कृत्य किसी गुरुके शरणमें होना चाहिए अन्यथा उस साधकको सूक्ष्म जगतकी अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट हो सकता है । उसीप्रकार किसी भी व्यक्ति या निकट सम्बन्धीकी साधनामें व्यवधान उत्पन्न करना, यह असुरत्वके लक्षण हैं एवं बहुत बडा पाप कर्म है ! जब दो व्यक्ति निकट सम्बन्धी हो और दोनों साधना करते हैं तो उस सम्बन्धको आध्यात्मिकता प्राप्त होती है और वह सम्बन्ध और मधुर एवं पवित्र बनता है ! जैसे पति-पत्नी दोनों साधनारत हों तो उनका सम्बन्ध आध्यात्मिक होनेसे यदि वे इस जन्ममें मुक्त नहीं हुए तो भी वह अनेक जन्मोंतक टिकता है अन्यथा अगले जन्म क्या इसी जन्ममें पति-पत्नीका सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है ! उसीप्रकार जब दो भाई साधनारत रहते हैं तो उनका बंधुत्व देखते ही बनता है; इसलिए यदि किसी सम्बन्धको मधुर करना हो तो न स्वयं कभी साधना छोडें और न ही दूसरोंकी साधनामें अवरोधक बनें ! वर्तमान कालमें अधिकांश व्यक्तियोंके अहं अधिक होनेके कारण उन्हें अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट होता है इसलिए न वे स्वयं साधना कर पाते हैं और न ही दूसरोंको करने देते हैं, ऐसेमें जो साधना करना चाहते हैं वे यदि गुरु आज्ञा पालन कर साधना करते रहते हैं और निकटतम सम्बन्धी यदि अवरोधक हों तो उसके अनिष्ट आवरण धीरे-धीरे नष्ट होनेपर वह भी साधना करने लगता है ! किन्तु यहां गुरु आज्ञा अनुरूप साधना होनी चाहिए ! पूर्व कालमें पिता, पुत्र को , अग्रज भ्राता अपने अनुजको, पति, पत्नीको और सास, बहू को साधनाकी ओर उन्मुख करते थे; किन्तु आजके कालमें सर्वत्र ऐसा नहीं होता ।अतः जिन्हें पहले साधान ज्ञात हो वे अपने निकट सम्बन्धीको साधना हेतु प्रेरित करें ।
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