संत उपदेश देने से पहले उन्हें अपने जीवन में चरितार्थ करते हैं अतः संतों की वाणी में चैतन्य होता है और साधक उनसे प्रभावित हो संत के बताए मार्ग का अनुसरण करते हैं |
कथनी और करनी में भेद होने से चैतन्य का भाग नगण्य होता है | इस संदर्भ में एक रोचक प्रसंग बताती हूँ |
एक बार एक माँ आपे बच्चे के साथ स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास आयीं और कहने लगीं “मेरा पु
त्र अत्यधिक रसगुल्ले खाता है मैं उसके इस आदत से अत्यंत दुखी हूँ आप ही कुछ उपाय बताएं |” स्वामीजी ने उस स्त्री से कहा, “ दस दिन पश्चात उस बच्चे को लेकर आयें मैं उपाय बता दूंगा |” स्त्री प्रसन्न हो घर आ गयी | दस दिन पश्चात वह पुनः स्वामीजी के पास गईं | स्वामीजी ने कहा, “और पाँच दिन का समय दो माँ, तब मैं उपाय बता दूंगा |” स्त्री थोड़ी निराश हो गयी परंतु पाँच दिन पश्चात स्वामीजी के पास पहुँच गयी | स्वामीजी ने कहा “पुत्र कहाँ है आपका । स्त्री ने अपने साथ लाये पुत्र को स्वामीजी के सामने कर दिया | स्वामीजी ने सहजता से कहा “बेटा रसगुल्ला अधिक ग्रहण करना स्वास्थ्य के लिय हानि कारक होता है अतः उसे कम से कम ग्रहण करना चाहिए |” उस स्त्री को कहा “ जाइए अब आपका पुत्र कम रसगुल्ले खाएगा |” स्त्री तुनक कर बोली “ यह क्या, आप तो स्वामीजी हैं कुछ उपाय बताएं यह तो मैं उसे प्रतिदिन बताती हूँ |” स्वामीजी ने कहा, “माँ , जिस दिन आप अपने पुत्र की आदत के बारे में बताया था उस दिन तक मुझे भी रसगुल्ले अत्यधिक पसंद थे और मैं भी उसे खाया करता था अतः अपनी आसक्ति को कम करने के लिए मैंने दस दिन का समय मांगा था परंतु उस दिन सुबह में रसगुल्ले को देख पुनः उसे ग्रहण करने की आसक्ति जागी अतः मैंने और पाँच दिन का समय मांगा आज मेरी आसक्ति पूर्णत: नष्ट हो गयी है अतः उसे यह उपदेश दे रहा हूँ | “ स्त्री स्वामीजी के प्रसंग सुन प्रसन्न हो गयी और उसे संतोष हो गया की अब मेरे पुत्र की यह वृत्ति छूट जाएगी ।
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