साधनाके अवरोधक (भाग-८)


शरीरको विश्रामकी इच्छा 
       जैसा कि आपको बताया ही था कि साधनाका अर्थ तप होता है और तपमें विश्रान्ति कहां होती है ? उसमें तो अपना सर्वस्व झोंकना पडता है और वह भी पूर्ण समर्पण एवं प्रेमसे ! तपसे निर्माण होनेवाली पीडाको जो साधक सहन कर लेता, उसे ही आगे आनन्दकी अनुभूति होती है । अनेक लोग साधनाके इस दृष्टिकोणसे अवगत नहीं होते हैं एवं साधना करनेकी इच्छा रखकर आश्रमोंमें साधना हेतु जाते हैं; उन्हें लगता है कि जीवनमें अधिक श्रम करनेकी आवश्यकता नहीं होती है, वहां बिना श्रमके सब सुख-साधनोंका उपभोग किया जा सकता है; किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । ऐसे लोग, जो इस भावनासे आश्रममें रहने आते हैं, उन्हें आश्रमके कठोर जीवनका भान होते ही वे साधनासे दूर हो जाते हैं । आपको मैं ‘उपासना’के आश्रममें आए ऐसे ही कुछ प्रमादी, आलसी एवं सुखके अभिलाषी लोगोंके विषयमें बताती हूं, जिससे आप यदि कभी आश्रममें जाते हैं तो आपसे ऐसी चूकें न हों !
* एक साधक आश्रममें रहने आए, उन्हें मिष्ठान्न रुचिकर लगता था; आश्रममें अतिथि आते रहते हैं तो मिठाई इत्यादि यदि कोई साधक लेकर आते हैं तो वह मैं साधकोंको ग्रहण नहीं करने देती हूं; क्योंकि मेरा सोचना है कि भोगकी वृत्ति आश्रम निवासियोंमें नहीं होनी चाहिए; इसलिए उसे अतिथियोंके लिए ही रखती हूं । मैंने उस साधकको यह दृष्टिकोण बताया था कि मिष्ठान्न हम अतिथियोंके लिए ही रखते हैं; अतः उसे ग्रहण न किया करें ! यह बतानेके पश्चात भी वह बिना पूछे मिष्ठान्न ग्रहण कर लेता था । यह अनेक बार हुआ तो मुझे उसे बताना पडा कि आश्रम जिह्वा सुखके लिए नहीं है और हम तो समष्टि साधक हैं, हमें भविष्यमें भी कहीं सेवा हेतु जाना पड सकता है, ऐसेमें हमारी जिह्वापर जितना अधिक नियन्त्रण होगा, बाहर सेवा करते समय हमें उतना ही कष्ट होगा; किन्तु वह साधक तो जैसे आश्रममें खाने हेतु ही आया था; वह खाते समय यह भी विचार नहीं करता था कि आश्रममें अन्य साधक भी हैं, मुझे उनका भी विचार करना चाहिए, उसे जो भी व्यञ्जन अच्छे लगते थे, वह उन्हें बिना दूसरोंका विचार किए खा लेता था । ध्यान रहे ! दूसरोंका विचार करना, यह साधकका गुण है ।
* एक बार झारखण्डके एक ग्रामसे एक युवती सेवा हेतु आई । वह निर्धन परिवारसे थी, उसके घरमें ‘इन्वर्टर’ इत्यादि नहीं था और जिस ग्रामसे वह आई थी, वहां मैं भी कुछ माह रही थी, वहां मात्र चारसे पांच घण्टे ही बिजली रहती थी अर्थात उसमें ‘गर्मी’ सहनकी वृत्ति थी । एक दिवस आश्रममें कुछ अधिक अतिथि आ गए । देहलीमें वैसे भी ‘गर्मी’ अधिक होती है तो मैंने उससे कहा, “जो अतिथि आए हैं, वे दो दिनमें चले जाएंगे, आप दो दिवस पंखेमें सो जाएं” तो उसने कहा, “यह मैं नहीं कर सकती हूं, मैं ‘कूलर’वाले कक्षमें ही सोउंगी !” उसकी यह बात सुनकर मैं हतप्रभ रह गई ! जिसे अपने घरमें चौबीस घण्टे पंखेका सुख भी नहीं मिलता है, वह ‘कूलर’का भी त्याग अतिथिके लिए, वह भी मात्र दो दिवस नहीं करना चाहती है !
 * एक बार एक युवा साधक आश्रम पूर्णकालिक साधक बनने हेतु आया ! उसे रोटी दी गई तो उसने स्पष्ट कहा मुझसे तो सूखी रोटी खाई नहीं जाती है, कृपया इसमें घी लगा दें ! हम आश्रममें यथाशक्ति खान-पानमें कटौती करते हैं, जिससे धर्मप्रसार हेतु धन एकत्रितकर उसमें व्यय कर सकें; क्योंकि हिन्दुओंमें त्यागकी वृत्ति कितनी है ?, यह तो आपको ज्ञात ही होगा ! लाखों लोग नियमित लेखन पढते हैं, सत्संग सुनते हैं; किन्तु हमें भी उपासनाके कार्यमें कुछ योगदान देना चाहिए, यह वृत्ति मुझे पाठकोंमें या श्रोताओंमें आजतक दिखाई नहीं दी ! किसी दिन किसी कारणवश लेखन या सत्संग न जाए तो लोगोंके सन्देश आने लगते हैं, आज भी दो बजे रातमें उठकर लेखन कर रही हूं; क्योंकि कल कहीं बाहर जानेके कारण लेखन नहीं हो पाया ! किन्तु हिन्दुओंमें त्यागकी वृत्ति नगण्य हो गई है; इसलिए जो धन अर्पणमें जाना चाहिए, उससे अनेक गुना (गुणा) धन, चिकित्सकके पास जाता है या कभी ५०००० का भ्रमणभाष चोरी हो जाता है या गिर जाता है तो कभी अन्य प्रकारकी दुर्घटनामें सहस्रों रुपये व्यय हो जाते हैं; किन्तु हमें तो इस घोर कलियुगमें भी कार्य करना ही है; अतः जहांतक मितव्ययता सम्भव हो, वह करनेका प्रयास करते हैं । यह बात साधकोंको समझमें नहीं आती है कि आधुनिक यन्त्रोंके माध्यमसे धर्मप्रसार करनेमें धन लगता है, हमें जो धन भिक्षामें मिलता है, उसीसे हमें सब कुछ चलाना है ।
 वैसे ही एक ६० वर्षीय स्त्री देहली आश्रममें कनाडासे रहने आई । उनका कहना था कि हम प्रातःकाल सबके लिए फल, सूखा मेवा, अङ्कुरित अनाज (दाल) तथा दूध इत्यादिका अल्पाहार रख सकते हैं ! मैंने कहा, “यह आश्रम जीवनमें सम्भव नहीं है । भविष्यमें गोशाला हुई तो दूधकी सुविधा हो सकती है; किन्तु आश्रमके आहारमें पौष्टिकता हो सकती है, विलासिता सम्भव नहीं ! इस भोजनको बनानेमें अधिक धन लगेगा; इसलिए हम ऐसा नहीं कर सकते हैं ।” तो उन्होंने कहा, “आप ऐसा नियोजन करेंगे तो ईश्वर आपको निश्चित ही धन देंगे ।” मैंने कहा, “चाहे ईश्वर कितना भी धन दें, आश्रमका मुख्य उद्देश्य धर्मप्रसार करना है और हमारे लिए जितना भी धन आए, वह सात अरबकी जनसङ्ख्याको साधना सिखाने हेतु अल्प ही होगा और आश्रमके भोजनमें विलासिता नहीं, पौष्टिकता और सात्त्विकता चाहिए होती है, उसका ध्यान अवश्य ही रखा जाता है ।”
* एक और युवा साधक आश्रम आए, वे भी पूर्णकालिक साधक बननेकी इच्छासे आए थे । उन्होंने कहा, “मैं घरमें अपने वस्त्र नहीं धोता हूं, आप धुलाई यन्त्र (वॉशिंग मशीन) क्रय कर लें ! इससे हमारा समय भी बचेगा और मुझे अधिक श्रम भी नहीं करना पडेगा । मैंने कहा, “धुलाई यन्त्र तो है; किन्तु उसे मात्र चादर या भारी वस्त्र धोने हेतु ही रखा गया है; क्योंकि एक तो उसमें बिजलीका व्यय होता है, ऊपरसे उस यन्त्रसे वस्त्र धोनेसे काला आवरण निर्माण होता है, उस तमोगुणका प्रभाव हमारे शरीर एवं मनपर पडता है और मात्र आपके दो वस्त्रोंके लिए नियमित यन्त्र नहीं चला सकते हैं और सभी साधकोंके वस्त्र एक साथ यन्त्रमें धोना अनुचित है; क्योंकि उससे एक-दूसरेके आध्यात्मिक कष्ट वस्त्रोंद्वारा सङ्क्रमित होते हैं; अतः मैं भी अपने वस्त्र स्वयं धोती थी । अब स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है तो अपने वस्त्र एक साथ एकत्रितकर सप्ताहमें एक बार धोती हूं । उस समय मुझे ‘साइनस’के कारण अधिक समय पानीमें रहनेसे और अधिक कष्ट बढ जाता था !
उपासनाके आश्रममें ऐसे अनेक प्रसंग घटित होते ही रहते हैं और आपको यह सब प्रसंग इसलिए बता रही हूं, जिससे आपको भान हो कि साधनाका पथ सरल नहीं, वरन कठोर है । यह सुख पानेका पथ नहीं है, तप करनेका पथ है, कष्ट सहनकर स्वयंको सशक्त बनानेका पथ है । जिसमें श्रम करनेकी, जिह्वापर नियन्त्रण करनेकी एवं कष्ट सहन करनेकी वृत्ति नहीं है, वे धर्मपालन व साधना नहीं कर सकते हैं ।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सम्बन्धित लेख


विडियो

© 2021. Vedic Upasna. All rights reserved. Origin IT Solution