साधनाके अवरोधक (भाग-२)


अस्वस्थता 
   ।। शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ।। – उपनिषद 
अर्थात शरीर ही सभी धर्मोंको (कर्तव्योंको) पूरा करनेका साधन है; इसलिए स्वस्थ रहना अति आवश्यक है । अनेक बार मैंने देखा है कि साधक अपने स्वास्थ्यका ध्यान नहीं रखते हैं, अनेक बार उनकी दोषपूर्ण दिनचर्या ही उनके अस्वस्थ होनेका कारण बनती है । कुछ उदाहरण देती हूं, जिसे मैंने स्वयं अनुभव किए हैं । एक साधक दम्पति कुछ समयके लिए आश्रममें रहनेके लिए आए थे ।  दोनोंको ही पित्तदोष था अर्थात उनका वात, पित्त कफमें पित्त अत्यधिक असन्तुलित था ।  वे जबसे आश्रममें आए थे तबसे वे आश्रमके नियमके विपरीत रात्रिमें देरतक जागरण करते थे और प्रातः भी वे शीघ्र उठ जाते थे; किन्तु निद्रा पूरी न होनेके कारण वे पूरी उत्साहसे सेवा नहीं कर पाते थे और साथ ही उनका पित्त बढा हुआ रहता था । मैंने उन्हें कई बार समझाया कि रात्रिमें ग्यारह बजेके पश्चात नहीं जागना चाहिए । आपको जो भी करना है, आप प्रातः चार बजे उठकर पूर्ण करें; किन्तु वे मेरी बात कभी भी नहीं मानते थे ।   दोनोंको ही अनिष्ट शक्तियोंका तीव्र कष्ट भी था । उन्हें अनेक प्रकारसे मैंने समझानेका प्रयास किया; किन्तु उन्होंने अपनी दिनचर्यामें कोई न कोई कारण बताकर सुधार नहीं किया । सम्भवतः यह उनके संस्कारमें आ चुका था ।
    एक और साधकको वात रोग था । मैंने उनसे कहा कि आपको जो भी खाद्य पदार्थ वात करता है, उसे न खाया करें तथा मैंने उन्हें कौन-कौनसे पदार्थ नहीं खाने हैं ?, यह अनेक बार बताया भी था । वे कुछ समय आश्रममें थे; उनके लिए पथ्य भी बनाया जाता; किन्तु वे उसे छोडकर जो उनकी जिह्वाको प्रिय होता वे उसे ही ग्रहण करते थे और थोडी देरमें अपने कष्टका रोना लेकर बैठ जाते थे । वे युवा थे मैंने उन्हें यह योग और प्राणायाम करने हेतु भी कहा था; किन्तु उनकी जिह्वापर तो उनका नियन्त्रण नहीं ही था, साथ ही वे आलसी वृत्तिके भी थे । अन्तत: उनका कष्ट उनकी साधनापर भारी पडा एवं उनकी समष्टि साधना छूट गई ।
   यह तो मैंने आपको दो उदाहरण दिए हैं । ऐसे अनेक उदाहरण हैं मेरे पास । जब अस्वस्थ शरीर साधनाको अवरुद्ध कर देता है । मात्र साधना ही नहीं, व्यावहारिक जगतमें भी सफल होने हेतु स्वस्थ शरीरका होना अति आवश्यक होता है । अस्वस्थ शरीरके जो मुख्य कारण हमने पाए वे इस प्रकार हैं – अयोग्य दिनचर्या, आयुर्वेद विरुद्ध आहार, राजसिक या तामसिक आहार, आलस्य, योग-प्राणयाम इत्यादि न करना, अशान्त मन एवं अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट । इन सबपर वैदिक उपासना पीठ मार्गदर्शन करती है, यह आपने हमारे लेखों एवं सत्संगोंसे जाना ही होगा; किन्तु तब भी मैंने पाया है कि आज अधिकांश लोगोंकी प्रवृत्ति राजसिक या तामसिक है एवं साधनाका महत्त्व उन्हें सिखाया नहीं जाता है; इसलिए उन्हें मनुष्य जीवन एवं स्वस्थ शरीरका मोल ज्ञात नहीं होता है ।
  जो साधना हेतु इच्छुक हैं, उन्होंने अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्यपर भी अवश्य ही ध्यान देना चाहिए । जैसे स्वस्थ शरीरके लिए आपको कुछ उपाय बताए हैं, वैसे ही स्वस्थ मनके लिए साधकोंने सर्व उपाय करने चाहिए  । इस हेतु भी हम आपको अपने सत्संग एवं लेखनसे मार्गदर्शन करते ही हैं । प्रसन्न रहना, साधनारत रहना, सात्त्विक रहना एवं दोष व अहंनिर्मूलन करते रहनेसे मन स्वस्थ रहता है ।


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