ख्रिस्ताब्द २००४ तक हमारे एक गुरुबंधु हमारे श्रीगुरुके मार्गदर्शनमें साधना कर रहे थे । हम सभी साधकों समान जब उन्हें भी अपने दोष एवं अहंके लक्षणोंके निर्मूलन हेतु कहा जाने लगा तब उन्होंने साधना छोड दी और किसी अन्य गुरुके शरणमें जाकर साधना आरम्भ कर दी । कुछ समय उपरांत उन्होंने किसी तीसरे गुरुसे सन्यास दीक्षा भी ले ली । ख्रिस्ताब्द २००० से २००२ के मध्य हमने कुछ माह धनबाद और वाराणसीमें एक साथ प्रसारकी सेवा की थी । उन्हें मुझसे स्नेह है; अतः वे सनातन संस्था छोडनेके पश्चात् भी मुझसे सम्पर्कमें रहे । जब मैं पिछले वर्ष बिहारके बक्सर जनपदमें प्रवचन हेतु गयी थी तब वे भी मुझसे मिलने आए और उन्होंने एक अनुज समान, अपने ननिहालसे सारी व्यवस्था करवाकर मेरा अत्यधिक ध्यान भी रखा; क्योंकि प्रवचनके आयोजकोंद्वारा की गया व्यवस्था ठीक नहीं थी और उन्हें ज्ञात था कि मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है ।
उनका बाह्य स्वरूप पिछले सात वर्षोंमें किसी योगी समान परिवर्तित हो चुका था और वे श्वेत वस्त्र धारण करने लगे हैं; परंतु उनकी साधनामें कोई विशेष प्रगति मुझे नहीं दिखी, मैंने उन्हें परोक्ष रूपसे इसके विषयमें संकेत दिए और उन्होंने हिचकिचाते हुए मेरी बात स्वीकार भी की । इस वर्ष पुनः जब मैं बिहारके देहरी-ऑन-सोन जनपदमें प्रवचन हेतु गई थी तो वे तीन घंटेकी यात्रा कर मात्र मुझसे भेंट करने आए थे, यह उनका मेरे प्रति विशेष स्नेह ही था । इस बार उनके बाह्य स्वरूपमें और भी योगी समान परिवर्तन दिखा; परंतु उनके मन एवं बुद्धिपर अत्यधिक सूक्ष्म काला आवरण अनुभव हो रहा था; जो मेरे लिए व्यथित कर रहा था; अतः मुझसे रहा नहीं गया, मैंने इस बार उनसे प्रत्यक्ष रूपसे यह बतानेकी धृष्टता की तो उन्होंने स्वीकार किया कि वे पिछले एक वर्षसे अत्यधिक मानसिक क्लेशमें हैं और उन्होंने बताया कि अपने घरके धनके बंटवारेको लेकर वे अत्यधिक दु:खी चल रहे हैं । कुछ दिनों पूर्व पुनः मैंने उनका चित्र देखा अब तो वे पूर्ण रूपेण साधू दिखने लगे हैं; परंतु आध्यात्मिक प्रगति उनकी अभी भी नहीं हो रही है ।
इस प्रसंगसे एक तथ्य जो स्पष्ट उभर कर आता है वह यह है कि यदि कोई साधक किसी एक गुरु या संतको प्रसन्न नहीं कर पाता है तो वह अन्य किसी भी गुरु या संतको भी प्रसन्न नहीं आकर सकता क्योंकि दोष उसमें होता है, संतों या गुरुओंमें नहीं और इसलिए कहा गया है एक साधे सब सधे । दूसरी बात यह है कि साधकने बाह्य स्वरूपपर थोडा ध्यान अवश्य देना चाहिए; क्योंकि समाज उन्हें आदर्शके रूपमें देखता है; परन्तु आंतरिक परिवर्तन अर्थात् साधना, आध्यात्मिक प्रगतिकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है; अतः मूल ध्यान अपने व्यक्तित्वके दोष और अहंके लक्षणोंको दूर करने हेतु एवं साधनाको वृद्धिंगत करने हेतु होना चाहिए । वस्तुतः हमारे श्रीगुरु (परात्पर गुरु डॉ. आठवले) सरीखे सद्गुरुका संरक्षण छोड, वे एक ऐसे गुरुके पास गए जिनका आध्यात्मिक स्तर मात्र ६०% है, वे गेरुयाधारी तो हैं और अत्यधिक प्रसिद्ध भी हैं; परन्तु अध्यात्मशास्त्रके दृष्टिकोणसे संत नहीं है । ऐसेमें उन साधकको इसलिए वे अच्छे लगे; क्योंकि उनके स्वयंका आध्यात्मिक स्तर ४०% है । अधिकतर २५ से ४० % तक अध्यात्मिक स्तरवाले साधकोंमें यदि अहंका प्रमाण अधिक हो तो उच्च कोटिके संतद्वारा बताई गई साधना करना उनके कठिन हो जाता है; अतः वे उन्नतोंके मार्गदर्शनमें साधना करनेमें सहजता अनुभव करते हैं ।
उन्नतोंके (जिनका आध्यात्मिक स्तर ५०-६९ % के मध्य होता है ) मार्गदर्शनमें साधना करनेपर आध्यात्मिक प्रगति द्रुत गतिसे नहीं होती । आज समाजमें अधिकांश गुरु पदपर आसीन अध्यात्मविद, अध्यात्मशास्त्रके दृष्टिकोणसे सन्त नहीं होते हैं और चूंकि ८०% सामान्य व्यक्तिका आध्यात्मिक स्तर ३५ % से कम है; अतः ऐसे उन्नतोंके पास भक्तोंके भारी समूह उनुयायीके रूपमें दिखाई देता है और एक तथाकथित साधक ऐसे उन्नतोंकी ऊपरी तामझाम देख उन्हें अपना गुरु बना लेते हैं ! ध्यान रहे, हमारी पात्रता अनुरूप ही हमें गुरु या मार्गदर्शक मिलते हैं ! – तनुजा ठाकुर (९.८.२०१२)
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