मैंने आपका वैदिक विवाहसे सम्बन्धित ‘धर्मधारा सत्संग’ सुना है । उसे सुननेके पश्चात मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या जिनका प्रेम विवाह हुआ है अर्थात जिनका पूर्ण वैदिक रीतिसे विवाह नहीं हुआ हो, वे साधना कर सकते हैं ? - हर्ष महाजन, खरगोन, मध्य प्रदेश


इस प्रश्नका उत्तर जाननेसे पूर्व हमारे धर्मशास्त्रोंमें आठ प्रकारके जो विवाह बताए गए हैं, उसे जान लें यथा –

१. ब्रह्म विवाह : दोनों पक्षोंकी सहमतिसे समान वर्ण, कुल इत्यादिको देखकर, सुयोग्य वरसे कन्याका विवाह निश्चित कर देना ‘ब्रह्म विवाह’ कहलाता है । इस विवाहमें वैदिक रीतिका पालन कर पाणिग्रहण संस्कार होता है एवं विवाहके पश्चात कन्याको आभूषणयुक्त करके विदा किया जाता है । आजका पूर्व निर्धारित “अरेंज मैरिज”, ‘ब्रह्म विवाह’का ही रूप है । यह उत्तम विवाह कहा जाता है ।
२.  दैव विवाह : किसी सेवा कार्यके (विशेषतः धार्मिक अनुष्टान) दक्षिणाके रूप अपनी कन्याको दानमें दे देना ‘दैव विवाह’ कहलाता है ।
३.  आर्श विवाह : कन्या-पक्ष वालोंको कन्याका मूल्य देकर (सामान्यतः गोदान करके) कन्यासे विवाह कर लेना ‘अर्श विवाह’ कहलाता है ।
४. प्रजापत्य विवाह : कन्याकी सहमतिके बिना उसका विवाह अभिजात्य (धनाड्य एवं कुलीन) वर्गके वरसे कर देना ‘प्रजापत्य विवाह’ कहलाता है ।
५. गन्धर्व विवाह : परिवारवालोंकी सहमतिके बिना वर और कन्याका बिना किसी रीति-रिवाजके आपसमें विवाह कर लेना ‘गन्धर्व विवाह’ कहलाता है ।
६. असुर विवाह : कन्याको क्रय कर (आर्थिक रूपसे) विवाह कर लेना ‘असुर विवाह’ कहलाता है ।  (यह रीति आज कुछ अहिन्दू पन्थोंमें प्रचलित है । )
७. राक्षस विवाह : कन्याकी सहमतिके बिना उसका अपहरण करके बलात (जबरदस्ती) विवाह कर लेना ‘राक्षस विवाह’ कहलाता है । (यह भी आज अहिन्दुओंद्वारा प्रचलनमें है ।)
८. पैशाच विवाह : कन्याकी मदहोशीका (गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि) लाभ उठा कर उससे शारीरिक सम्बन्ध बना लेना और उससे विवाह करना ‘पैशाच विवाह’ कहलाता है । इसमें कन्याके परिजनोंकी हत्या तक कर दी जाती है । (आज ऐसा अनेक वासनान्ध (नरपिशाच) करते हुए दिखाई देते हैं, धर्मकी अधोगति एवं राज्यकर्ताओंकी अकर्मण्यताके कारण ही ऐसे विवाह होते हैं ।)
  इसप्रकार ‘प्रेम विवाह’ भी विवाहका एक प्रकार है । यहां विशेष बात यह है कि विवाह चाहे जिस भी प्रकारसे हुआ हो, वर और वधु दोनों ही सदैव साधना करनेके अधिकारी होते हैं, क्योंकि मनुष्य जीवनका मुख्य उद्देश्य ईश्वरप्राप्ति होता है; और उसे मात्र साधना कर ही साध्य किया जा सकता है; अतः अन्तिम तीन प्रकारके निकृष्ट विवाह करनेवाले वर एवं उसमें संलग्न सभी लोग, साधनाके अधिकारी होते हैं, यह बात और है कि एक बार वे साधना आरम्भ कर दे तो उनसे जो पाप हुआ है, उसका उन्हें प्रायश्चित निश्चित ही करना पडता है और ईश्वरीय विधान अनुसार दण्ड भी भोगना पडता है ।
  सामान्यत: प्रेम विवाहमें विवाह पूर्व या उस मध्य व्योवृद्धों, माता-पिता, देवता-पितरका आशीर्वाद नहीं लिया जाता है; इसलिए ऐसे दम्पतिको अपने वैवाहिक जीवनमें अनेक बुद्धि अगम्य (आध्यात्मिक) अडचनोंका सामना करना पडता है; किन्तु साधना कर देवता-पितरको प्रसन्न किया जा सकता है एवं माता-पितासे क्षमा याचना कर, उनकी सेवा कर, उन्हें भी प्रसन्न किया जा सकता है और ऐसा करनेसे साधनाद्वारा इन पापोंको न्यून करने हेतु जो शक्ति व्यय होती है, उससे बचा जा सकता है ! एक तथ्य सदैव ध्यान रखें, सुखी गृहस्थ जीवन एवं यशस्वी सन्तान प्राप्ति हेतु माता-पिता, देवता एवं पितरोंका आशीर्वाद परम आवश्यक होता है; इसलिए यदि किसीने भावनाके आवेगमें आकर या परिस्थिति अनुरूप प्रेम विवाह कर लिया हो तो उन्होंने विवाहके पश्चात अभी बताये सभी घटकोंको प्रसन्न करनेका निश्चित ही प्रयास करना चाहिए, यह उनका एक प्रकारसे प्रायश्चित होता है ।   – तनुजा ठाकुर



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