कलियुगमें ईश्वरके निराकार स्वरुपको माननेवाले अनेक पन्थोंका जन्म हुआ, वैसे तो निराकार स्वरुपकी आराधना वैदिक धर्मसे सदैवसे ही होती आ रही है, वस्तुत: सत्ययुगमें समाजकी सात्त्विकता अधिक होनेके कारण एवं धर्मके चारों पाद विद्यमान होनेके कारण निराकार स्वरुपकी ही आराधना की जाती थी । जैसे-जैसे युगोंका प्रवाह हुआ एवं धर्मके भिन्न चरणोंके क्षरण हुए वैसे-वैसे समाज सगुण आराधनाकी और प्रवृत्त होने लगा; किन्तु तब भी मुख्य उद्देश्य उसी निराकार परब्रह्म स्वरुपसे एकरूप होना था; किन्तु कलियुगमें कुछ निराकारी पन्थ निर्गुणकी उपासनाके नामपर नास्तिकता एवं सगुण आराधनाकी तिरस्कार करते हैं । ऐसे सभी लोगोंके लिए गीताके ये श्लोक पठनीय हैं –
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥
अर्थ : अर्जुन बोले, “जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकारसे निरन्तर आपके भजन-ध्यानमें लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वरको और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्मको ही अतिश्रेष्ठ भावसे भजते हैं- उन दोनों प्रकारके उपासकोंमें अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं? ।”
श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
अर्थ : श्रीभगवान बोले, “मुझमें मनको एकाग्र करके निरन्तर मेरी उपासनामें लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धासे युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वरको भजते हैं, वे मुझको, योगियोंमें अति उत्तम योगी मान्य हैं ।”
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
अर्थ : परन्तु जो पुरुष इन्द्रियोंके समुदायको भली प्रकार वशमें करके मन-बुद्धिसे परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहनेवाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको निरन्तर एकीभावसे ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं ।
इस प्रकार उपर्युक्त श्लोकोंसे भगवान् श्रीकृष्णने यह स्पष्ट कर दिया है कि ईश्वरके सगुण और निर्गुण स्वरुपमें कोई भेद नहीं है और दोनों ही स्वरुपकी उपासना करनेवालेको परम गति प्राप्त होती है । उपासक किस भावसे उपासना करता है इसका महत्त्व है, अधिकांशत: भक्तिमार्गी साधकको सगुणकी आराधना करना सरल लगता है वहीँ ध्यान, ज्ञान और कर्मके मध्यामसे साधना करनेवालोंके लिए ईश्वरके निर्गुण स्वरुपकी साधना करना सहज लागता है; परन्तु सभीका लक्ष्य एक ही होता है परम आनन्दकी प्राप्ति करना एवं सगुणके प्रति जिनकी अगाध श्रद्धा होती है, वे उसी सगुण आधारके माध्यमसे निर्गुण ब्रह्मसे एकरूप हो जाते हैं ! हमारे श्रीगुरुके श्रीगुरु परम पूज्य भक्तराज महाराजने एक भजनमें कहा है सगुण –निर्गुण नहीं भेदाभेद किन्तु एकांगी साधना करनेवाले दोनोंमें भेद करते रहते हैं एवं कोई सगुण तो कोई निर्गुण स्वरुपको श्रेष्ठ मानते हैं । –
तनुजा ठाकुर
सोऽहं वर्ष – ५, अंक – ३ से उद्धत
Leave a Reply