सन्त-महापुरुषोंके संगसे पाप-ताप सब नष्ट होते हैंं और अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है । सन्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरितमानसमें सन्त सान्निध्यका महत्त्व बताते हुए कहते हैं –
शठ सुधरहिं सतसंगति पाई ।
पारस परस कुधात सुहाई ।।
अर्थात जैसे पारसके स्पर्शसे लोहा सोना बन जाता है, वैसे ही सत्संगतिमें दुष्ट भी सुधर जाते हैं ।
सन्तकृपा शरणागत होनेसे प्राप्त होती है एवं जो अनेक प्रकारकी साधनासे सम्भव नहीं, वह सन्तकृपा या उनकी सेवासे सहज ही सम्भव है; इसीलिए श्रीमद्भागवतपुराणमें राजा रहूगणसे महात्मा जडभरत कहते हैं –
रहूगणैतत्तपसा न याति न चेज्यया निर्वपणाद् गृहाद्वा ।
नच्छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यैर्विना महत्पादरजोSभिषेकम्॥
अर्थात परमज्ञान मात्र महापुरुषोंकी चरणधूलिको मस्तकपर धारण करनेसे अर्थात शरणागत होनेसे ही प्राप्त होता है । जो तपसे, वेदोंसे, दानसे, यज्ञसे, गृहस्थ-धर्मके पालनसे, वेदाध्ययनसे या जल, अग्नि या सूर्यकी उपासना रूपी कर्मोंसे, किसी भी प्रकारसे ब्रह्मज्ञान नहीं मिलता है । अतएव इससे यह सिद्ध होता है कि सर्व कार्योंकी सिद्धि महापुरुषोंके चरणोंके अभिषेकसे अर्थात सान्निध्यसे प्राप्त होती है ।
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