सन्तोंके पास रहनेसे चित्तकी स्वतः ही शुद्धि होती है । किन्तु उस साधक या शिष्यका भाव उत्कृष्ट एवं निर्विकल्प होना चाहिए जो मात्र कार्यकर्ता समान देह घिसते हैं, अपने गुरुके कृत्योंको अपने अल्प बुद्धिसे विश्लेषण करते हुए उसमें खोट ढूंढते हैं, मनमें बार-बार विकल्प लाते हैं, ऐसे जीव वर्षों भी यदि सन्त सान्निध्यमें रहे तो भी उन्हें, उनका कोई लाभ नहीं मिलता है ।
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