एक बार कबीरदासजीको लगने लगा कि उनके पास साधक प्रवृत्तिवाले कम और सांसारिक इच्छाकी कामना करनेवाले लोग अधिक आने लगे हैं; अतः एक दिन वे सबके सामने एक वैश्याके घर चले गए । वहां उपस्थति अधिकांश लोग कानाफूसी करने लगे और कहने लगे, “देखा, मैंने तो पहले ही कहा था कि ये ढोंगी हैं, चलो अच्छा हुआ कि उनकी कलई खुल गयी |” और सब प्रवचन स्थलसे चले गए ।
एक घंटे पश्चात कबीर दासजी लौटे तो देखा कि पूरा प्रवचन मण्डप रिक्त था और मात्र पांच लोग वहां बैठे थे । जैसे ही उन्होंने कबीरदासको देखा तो वे श्रद्धापूर्वक उनके चरण स्पर्श किये । कबीरदासजी बोले, “अरे, तुमने देखा नहीं, मैं अभी कहां गया था ?” ! वहां उपस्थित एक साधकने कहा, “महाराज, हम सब तो यह जानते हैं कि उस वैश्याने निश्चित ही कुछ पुण्य किए होंगे जो आपकी चरण धूलि उसके आंगनतक पहुंच गयी , उसके तो भाग्य जग गए, महाराज” ! कबीरदासजी मुस्कुराये और बोले, “बैठो, भिखमंगोकी भीड लग गई थी; इसलिए उन्हें भगानेके लिए यह सब नाटक करना पडा |” और उन्होंने उन पांचोको ज्ञान दिए !
सन्तोंकी लीलाका हम अपनी बुद्धिसे कभी भी समीक्षा नहीं कर सकते हैं, उनकी प्रत्येक लीला निराली होती है और उसका आशय मात्र एक सतशिष्य ही समझ सकता है ।
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