सत्त्व, रज एवं तम किसे कहते हैं ? (भाग – २)


सत्त्वं रजस्तमश्चैव त्रीन्विद्यादात्मनो गुणान् ।
यैर्व्याप्येमान्स्थितो भावान्महान्सर्वानशेषतः ।।
अर्थ : सत्त्व गुण, रजोगुण व तमोगुण, ये आत्माकी प्रकृतिके तीन गुण हैं । यह विशाल स्थावर व जंगम रुपी संसार इन तीन गुणोंसे व्याप्त होकर ही स्थित है ।
यो यदैषां गुणो देहे साकल्येनातिरिच्यते ।
तं तदा तदगुणप्रायं तं करोति शरीरिणम् ।।
अर्थ : सत्त्व, रज व तम – इन तीन गुणोंमेंसे प्राणीमें जिस गुणकी अधिकता पाई जाती है, वह उस  गुणके लक्षणोंसे युक्त होता है ।
सत्वं ज्ञानं तमोऽज्ञानं राग द्वेषै रजः स्मृतम् ।
एतद् व्याप्तमिदेतेषां सर्वभूताश्रीतं वपुः ।।
अर्थ : ज्ञानके सत्य रूपको जानना सत्त्वगुणका, अज्ञान अर्थात जानने योग्य सत्यको न जानना तमोगुणका एवं राग, द्वेष, मोह इत्यादि रजोगुणका लक्षण है । इन्हीं तीन गुणोंसे सभी जीवका शरीर व्याप्त है ।
तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं किच्ञिदात्मनि लक्षयेत् ।
प्रशान्तमिव शुध्दाभं सत्त्वं तदुपधारयेत् ।।
अर्थ : मनुष्यकी आत्माको जिस गुणसे प्रसन्नता मिले, उसे शान्ति व निर्मल ज्योतिका अनुभव हो व उसका आचरण करनेकी जिज्ञासा होने लगे – उसे ही सत्त्वगुण जानें ।
यत्तु दुःखसतायुक्तमप्रीतिकरमात्मनः ।
तद्रजोऽप्रतितं विद्यात्सततं हारि देहिनाम् ।।
अर्थ : आत्माके लिए अप्रिय, दुःखसे युक्त एवं मनको परमात्मासे विरक्त कर इन्द्रियोंके विषयमें लगानेवाले गुणको रजोगुण समझें ।
यत्तु स्यान्मोहसंयुक्तमव्यक्तं विषयात्मकम् ।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत् ।।
अर्थ : जो जीवको मोह व अज्ञानमें प्रवृत्त करे, अप्रकट रहस्योंकी ओर आकर्षित करे तथा जिसे तर्कसे न जाना जा सके, उसे ही तमोगुण समझना चाहिए ।



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