जिनमें अधिक अहं होता है, उन्हें यह लगता है कि उन्हें बहुत ज्ञान है या सब पता है; इस कारण उनमें सीखनेकी वृत्ति अत्यल्प होती है एवं सिखानेकी वृत्ति अधिक होती है । यही कारण है कि आज समाजमें तथाकथित अर्द्धज्ञानी गुरु अधिक होते हैं एवं शिष्य या साधक प्रवृत्तिके लोग कम दिखाई देते हैं ।
अहं अधिक होनेसे उनकी वाणीमें भी विनम्रता नहीं होती है और न ही चैतन्य होता है । कहा गया है कि एक अच्छा गुरु होनेके लिए एक अच्छा शिष्य होना अति आवश्यक है, इस तथ्यको सभीने ध्यानमें रखना चाहिए ।
जिनमें अहं अधिक होता है, उन्हें ‘अमुक-अमुक विषय ज्ञात नहीं’, यह बतानेमें भी झिझक या संकोच होता है । उन्हें अपनी छविकी बहुत चिन्ता होती है एवं यदि उन्होंने बता दिया कि मुझे यह नहीं आता है तो लोग क्या सोचेंगे ? इसकी उन्हें बहुत चिन्ता होती है । अनेक बार उनकी इस वृत्तिके कारण उनका समय व्यर्थ होता है एवं कभी-कभी उन्हें आर्थिक हानि होती है या उनका समय व्यर्थ होता है; इसलिए यदि किसी साधकमें ऐसा दुर्गुण हो तो उसे त्वरित दूर करनेका प्रयास करना चाहिए । वस्तुत: सीखनेकी प्रक्रिया रुक जानेपर प्रगति भी थम जाती है और इस ब्रह्माण्डमें इतना कुछ सीखनेको है कि जिनमें सीखनेकी वृत्ति होती है या ज्ञान प्राप्तिकी रुचि होती है तो उन्हें लगता है कि मेरा ज्ञान कितना सतही है और मुझे अभी कितना कुछ सीखना है !
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