मैं अपने श्रीगुरुसे क्यों जुडी, यह कुछ लोग मुझसे पूछते रहते हैं, तो इस लेख श्रृंखलामें मैं प्रतिदिन आपको एक कारण बताऊंगी –
इस वर्ष समान ख्रिस्ताब्द १९९० में बिहारमें हुए व्यापक स्तरके शैक्षणिक भ्रष्टाचारके कारण मुझे १२ वींकी बोर्ड परीक्षामें ५७ प्रतिशत अंक आये थे | जो विद्यार्थी ९९ अंक आनेपर यह सोच कर रोने लगता हो कि १०० अंक न मिलनेपर उसकी विद्यार्जन रुपी साधना अपूर्ण रह गयी और वह अनुत्तीर्ण हो गयी | उसे यदि ५७ % प्रतिशत अंक आये तो उसे कितना मानसिक संताप पहुंचा होगा, इसकी कल्पना सहज ही किया जा सकता है |
मेरे मनमें इस भ्रष्ट व्यवस्थाके लिए आक्रोष निर्माण हुआ और मैं उसी समय विद्यार्थियोंको एकत्रित कर व्यापक आन्दोलन करनेका नियोजन कर रही थी; किन्तु मेरे साधक वृत्तिके द्रष्टा पिताजीने मेरे आहत मनको समझाते हुए मुझे मेरे सामर्थ्यको बढानेका सुझाव दिया जिससे मेरा आन्दोलन असफल न हो | उन्होंने कहा, “आजका दुर्जन संगठित है, उसके पास धन, बल, राजनीतिक शक्ति एवं संरक्षण है, आपके पास मात्र मानसिक बल है, इससे कोई आन्दोलन सफल नहीं होता, भ्रष्टाचारियोंसे लडने हेतु सभी स्तरोंपर अपने सामर्थ्यको बढायें |”
उसी मध्य एक दिवस मैंने अपनी कुलदेवीके आगे संकल्प लिया कि आजसे मेरे जीवनको कोई व्यष्टि ध्येय नहीं रहा और अब मात्र मैं समष्टि ध्येय हेतु ही जीवित रहुंगी तथा भ्रष्टाचारियोंको दंड दिलवाकर सुराज्यकी स्थापनामें यथा सम्भव योगदान दुंगी | उसी समयसे मैं अपने इस ध्येयकी पूर्ति हेतु, अपना सामर्थ्य बढानेके लिए अपनी अल्प बुद्धिसे पूर्ण लगनसे प्रयास करने लगी कि इसी मध्य ईश्वरीय नियोजनके अनुसार मेरा, मेरे श्रीगुरुसे साक्षात्कार हुआ | ख्रिस्ताब्द १९९८ में श्रीगुरुने ईश्वरीय राज्यकी स्थापनाकी घोषणा की, मेरे अन्तर्मन इसी ध्येयकी स्थापनाकी हेतु तडप रहा था; अतः सुराज्यकी स्थापनामें गिलहरी समान अपना योगदान देने हेतु मैं श्रीगुरुके प्रति पूर्ण रूपेण शरणागत हुई और मेरे अन्तर्यामी श्रीगुरुको मैंने कभी अपना ध्येय नहीं बताया; किन्तु वे सतत मेरे मनोभाव एवं उद्देश्यको ध्यानमें रख आज्ञा देते रहें और मरे सामर्थ्यको बढाते हुए, मुझसे सर्व कृति भी करवाते रहे, इसीकारण वे मेरे आराध्य हैं | – तनुजा ठाकुर (२४.९.२०१७)
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