ईश्वरके तत्त्वोंको न जाननेके कारण ही कुछ शिवोपासक भगवान विष्णुकी निंदा करते हैं और कुछ वैष्णव भगवान शिवकी निंदा करते हैं, कोई यदि निंदा और द्वेष नहीं भी करते हैं तो उदासीन तो रहते ही हैं; परन्तु शास्त्र कहता है कि जो व्यक्ति इस प्रकार का व्यवहार करता है उसे वस्तुतः ज्ञानरहित ही समझा जाना चाहिए । हमारे शास्त्रोंमें कहीं भी शिवजी और विष्णुजीने एक-दूसरेकी निंदा आदि न ही की है और न ही निंदा आदि करनेके लिए कहा ही है; अपितु निंदा आदिका निषेध और दोनोंको एक ही परमेश्वरके भिन्न स्वरुप माननेका आग्रह किया गया है, इस सम्बन्धमें स्वयं भगवान शिव, श्रीविष्णु भगवानसे कहते हैं –
मद्दर्शने फलं यद्वै तदेव तव दर्शने ।
ममैव हृदये विष्णुर्विष्नोश्च हृदये ह्यहं ।।
उभयोरंतरं यो वै न जानाति मतो मम । – (शिव० ज्ञान० ४/६१-६२)
अर्थ: आप मेरे हृदयमें निवास करते हैं और मैं आपके हृदयमें रहता हूं । मेरे दर्शनका जो फल है, वही आपके दर्शन का है और जो हम दोनोंमें कोई भेद नहीं समझता है वही हमें मान्य है ।
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