श्रीगुरु उवाच


‘यज्ञमें आहुति देने हेतु तथा अन्य धार्मिक कार्यों हेतु धन व्यय करनेकी अपेक्षा वह निर्धनोंको दें’, ऐसा जब बुद्धिप्रामाण्यवादी कहते हैं तब उनकी बुद्धिपर तरस आता है; कारण उन्हें अध्यात्मशास्त्र ज्ञात नहीं होता, तब भी वे ऐसी अनर्गल बातें करते हैं । यदि वे अध्यात्मशास्त्रके अनुसार निम्नलिखित सूत्र ध्यानमें रखेंगे, तो उनकेद्वारा ऐसे धर्मद्रोही विधान नहीं होंगे ।

१. निर्धन ‘निर्धन क्यों है?”, इसका उन्होंने अभ्यास नहीं किया होता है । गत जन्मकी कुछ चूकोंके कारण इस जन्ममें वह प्रारब्धभोग भोगने हेतु निर्धन होता है ।

२. ईश्वरको उनकी दरिद्रता दिखाई देती है, तब भी वे उन्हें सहायता नहीं करते, ऐसेमें हमारा उन्हें सहायता करना अर्थात ‘ईश्वरसे अधिक हमें समझ आता है’, ऐसा होता है । ईश्वर उनसे उनके कर्मभोग करवाकर उनका प्रारब्ध अल्प कर रहे होते हैं ।

३. यदि ऐसा लग रहा हो कि ‘किसीको सहायता करें’, तो सबसे महत्त्वपूर्ण सहायता है, ‘उसे साधना सिखाएं ।’ वह साधना करने लगेगा, तो उसका प्रारब्ध अल्प हो जाएगा तथा उस कारण उसकी निर्धनता दूर हो जाएगी ।

४. किसीपर बहुत बडा संकट आए, तो वह निर्धन हो या धनवान हो, उसे तत्काल सहायता करें । – परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवले, संस्थापक, सनातन संस्था

साभार : मराठी दैनिक सनातन प्रभात (https://sanatanprabhat.org)



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