साधको, कृतज्ञता भावमें रहते हुए अन्योंकी तुलनामें अपनी प्रगति अल्प हो रही है, यह सोचकर मनमें निराशा लानेसे अच्छा है आनन्दपूर्वक साधना करना, इससे साधना अच्छेसे करनेमें सहायता होगी ।
साधक स्वभाव दोषोंकी सारिणी लिखते हैं, स्वभाव दोष दूर करनेके लिए स्वयंसूचनाएं देते हैं, साधक इतना करते तो योग्य होता; परन्तु कुछ साधक दिनभर स्वभाव दोषोंपर विचार कर दु:खी होते रहते हैं । कुछ दूसरोंके गुणोंसे स्वयंकी तुलना कर स्वयंको कम समझकर व्यथित होते रहते हैं । उन्हें यह समझमें नहीं आता है कि माहमें १० सहस्र, ५० सहस्र या १ लक्ष (लाख) कमानेवाले, यदि अपनेसे अधिक वेतन पानेवालेसे तुलना करेंगे तो सदैव ही दु:खी रहेंगे । इससे अच्छा है कि १० सहस्र पानेवाला सोचे “मैं नौकरी न करने वालेसे अच्छा हूं” । ५० सहस्र पानेवाला स्वयंको १० सहस्र पानेवालेसे तुलनाकर सोचे कि मैं १० सहस्र पानेवालेसे अधिक सुखी हूं और १ लक्ष (लाख) पानेवाले ५० सहस्र पानेवालेसे स्वयंकी तुलना करेंगे तो स्वयंको सुखी समझेंगे, और इस प्रकार वे सभी आनन्दमें रहेंगे ।
साधकोंको यह नहीं समझमें आता है कि ईश्वरने उन्हें मनुष्य जन्म दिया, साधना करनेकी इच्छा निर्माण की, उन्हें साधनामें मार्गदर्शन मिल रहा है और प्रगति भी हो रही है । पृथ्वीपर बहुसंख्यक मानवोंकी तुलनामें वे कितने अच्छे हैं, ऐसी सोच, ईश्वरके प्रति कृतज्ञताका भाव निर्माण करेगी । स्वयंसूचना सत्रमें दोषोंको स्मरण कर स्वयंसूचना देना योग्य है; साथ ही दिनभर नामजप करें, कृतज्ञताके भावमें रहें, जहां भाव है वहां ईश्वर है, इससे मन आनन्दी रहेगा ।
मेरे उदाहरणसे कृतज्ञता भावमें रहते हुए सेवा कर आनन्दकी कैसे प्राप्ति होगी ?, यह ज्ञात होगा । वर्ष १९८५ से २००७ तक मैं सर्वत्र सत्संग, अभ्यासवर्ग, सार्वजनिक सभा इत्यादि लेने जाता था । वर्ष २००७ से आजतक कहीं बाहर नहीं जा सका, तब भी आजतक ईश्वरद्वारा मुझसे करवाए विविध कार्योंको स्मरण कर मैं कृतज्ञताके भावके साथ आनन्दमें रहता हूं; इसीलिए ग्रन्थलेखन सेवा भी दिन-रात कर पाता हूं । – परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवले, संस्थापक सनातन संस्था
साभार : मराठी दैनिक सनातन प्रभात
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