श्रीगुरु उवाच


हिन्दुओं अपने पुत्रोंको शिक्षण हेतु अथवा नौकरी हेतु विदेशोंमें भेज उनकी तथा स्वयंकी जन्मजन्मांतरकी हानि न करें !

१. पुत्रोंकी हानि : कुछ पालक अपने पुत्रोंको शिक्षण हेतु विदेश भेजते हैं और बडे अभिमानसे कहते हैं, हमारा बेटा अमेरिकामें है, उनकी समझमें यह नहीं आता कि पुत्रको विदेश भेजकर वे उसके अनेक जन्मोंकी हानि कर रहे हैं ।

हानिके कारण निम्नानुसार हैं :

अ. भारतकी कितनी भी अधोगति हो जाए तथापि अन्य देशोंकी तुलनामें भारत सात्त्विक है । इसकारण बेटा विदेशमें रहता हो तो असात्त्विक (तामसिक) वातावरणमें रहता है ।

आ. असात्त्विक वातावरणमें रहनेके कारण उनपर अनेक अयोग्य संस्कार होते हैं ।

इ. उसे साधना क्या है ?, यहभी पता नहीं होता, इसकारण साधनाकर ईश्वरप्राप्ति

करना मनुष्यजन्मका ध्येय है, यह उसे ज्ञात नहीं होता ।

ई. बेटा शिक्षण पूर्ण होनेपर अच्छे वेतनकी चाकरी (नौकरी) मिलनेके कारण वहीं रहता है । विवाहोपरांत उसके बच्चे उसी रज-तम प्रधान वातावरणमें बडे होते हैं । इससे उसकी अनेक  पीढियोंकी हानि होती है ।

उ. जन्मभूमिके संदर्भमें अपना कोई कर्तव्य है ?, यह भी उसे ज्ञात न होनेके कारण उस कर्तव्यका भी उससे पालन नहीं होता ।

२. पालकोंकी हानि : जिसने जन्म लिया उसे मृत्यु अटल है । इस सिद्धांतानुसार पालकोंको भी मृत्यु आती है; परन्तु विदेशमें निवास करनेसे श्राद्धपक्षका ज्ञान नहीं होनेके कारण एवं उसके करनेकी वहां कोई व्यवस्था न होनेके कारण श्राद्धपक्ष नहीं किया जाता । इससे पालकोंको मृत्योत्तर जीवनमें   श्राद्ध-पक्षका लाभ नहीं मिलता तथा पुत्र भी माता-पिता तथा पितरोंके ऋणसे मुक्त नहीं होते । -परात्पर गुरु डॉ . जयंत आठवले (९.६.२०१४)



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