अधर्मसे अर्जित धन दुःखका बनता है कारण


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आजकल अनेक लोग येन-केन प्रकारेण धनका संचय करते हैं, उन्हें ऐसा लगता है कि ऐसा करनेसे वे अपनी भावी पीढीके लिए सुख-शान्तिकी निश्चिती कर रहे हैं; किन्तु ऐसा है नहीं । ऐसे व्यक्ति अपने लिए पापकर्म निर्माणकर अपना इस लोकमें एवं परलोकमें अहित कर रहे होते हैं । अधर्मसे संचित धन अस्थाई होता है, उससे प्राप्त सुख क्षणिक होता है एवं वह क्लेशोंको आमन्त्रित करता है । महाभारतका यह श्लोक इस तथ्यकी पुष्टि करता है –
परस्य पीडया लब्धं धर्मस्योल्लंघनेन च ।
आत्मावमानसंप्राप्तं न धनं तत् सुखाय वै ।।
अर्थात दूसरोंको दु:ख देकर, धर्मका उल्लंघनकर या स्वयंका अपमान सहकर मिले हुए धनसे सुख नहीं प्राप्त होता है । अतः ‘धर्मेण अर्थ:‘ अर्थात धनकी प्राप्ति धर्म अधिष्ठित होनी चाहिए एवं आवश्यकतासे अधिक धनको समाज हित हेतु अर्पण करना चाहिए, तो ही वह कल्याणकारी हो सकती है । – तनुजा ठाकुर



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