जब कोई साधक समष्टि सेवा अन्तर्गत धर्म प्रसारकी सेवा आरम्भ करता है तो उसकी आध्यात्मिक प्रगति द्रुत गतिसे होने लगती है; क्योंकि कलियुगमें व्यष्टि साधनाका महत्त्व ३०% है और समष्टि साधका महत्त्व ७०% है । ऐसेमें आसुरी शक्तियां ऐसे साधकोंको शारीरिक, मानसिक, आर्थिक या कौटुम्बिक कष्ट देती हैं । इसप्रकारकी कष्टप्रद अनुभूतियां आदिकालसे ऋषियों, मुनियों और तपस्वियोंको भी होती रही हैं, जो समष्टि कल्याणके लिए यज्ञ करते थे और असुर उनके यज्ञको उद्ध्वस्त कर उन्हें भिन्न प्रकारके कष्ट देनेका प्रयास करते थे । आज भी आसुरी शक्तियां समष्टि साधकोंको भिन्न–भिन्न प्रकारके कष्ट देकर उनकी साधनामें विघ्न डालनेका प्रयास करती हैं, किन्तु हिन्दू धर्मके सूक्ष्म पक्षसे अनभिज्ञ होनेके कारण आज अनेक साधक ऐसे कष्टप्रद प्रसंग अनुभव तो करते हैं; परन्तु उन्हें स्वीकार नहीं करते ।
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