गीता सार


सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ – श्रीमदभगवद्गीता (२.३८)

अर्थ  : जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुखको समान समझकर, उसके पश्चात युद्धके लिए तैयार हो जा, इस प्रकार यद्ध करनेसे तू पापको नहीं प्राप्त होगा |

भावार्थ : युद्धके समय यदि कोई किसीकी  मृत्युका कारण बनेगा तो कर्मफल न्यायके सिद्धान्त अनुसार, किसी-न-किसी जन्ममें मरनेवालेके हाथों उसे मरना पड़ेगा | यह कर्मका सिद्धान्त है | परंतु यहां भगवान कृष्ण अर्जुनसे कह रहे हैं, “यदि जय–पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुखको समान समझनेके पश्चात युद्ध करोगे तो इस प्रकारके युद्धसे कोई पाप नहीं लगेगा” |

जो साधक सुख–दुख, जय-पराजय और लाभ-हानिसे तनिक भी प्रभावित नहीं होता, उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है | ऐसे स्थितप्रज्ञके प्रत्येक कर्म, अकर्म कर्म होते हैं, अर्थात कर्मका कर्मफल लागू नहीं होता |  स्थितप्रज्ञताकी स्थिति ८०% आध्यात्मिक स्तरपर साध्य होती है, ऐसे साधक कर्ममें अलिप्त रहते हुए कर्म करते हैं | ऐसे साधक जीवममुक्त आत्मा होती हैं और संतके सद्गुरु पदपर आसीन होते हैं | इससे नीचेके आध्यात्मिक स्तरपर किए जाने वाले प्रत्येक कर्मका कर्मफल भोगना पड़ता है, यह ध्यान देने योग्य विषय है |

आनेवाले समयमें धर्मक्रान्ति होने वाली है; इसलिए साधकोंको  अकर्म कर्मकी भावनासे ही उस युद्धमें सहभागी होनेका प्रयास करना चाहिए; अन्यथा कर्मफलके सिद्धान्त उनपर भी लागू होंगे | इस हेतु साधकको अपनी साधनाकी ओर विशेष ध्यान देना चाहिए | व्यष्टि, अर्थात वैयक्तिक स्तरकी साधना जितनी अच्छी होगी, समष्टि स्तरपर उसका प्रभाव भी उतना ही अधिक होगा | अतः समष्टिके साथ व्यष्टि स्तरकी साधनाका विशेष महत्त्व है; परन्तु आजकी अधिकांश हिन्दुत्त्ववादी एवं राष्ट्रनिष्ठ संस्थाएं अध्यात्मज्ञान विरहित हैं | अतः उनके कार्यकर्ताको भी इस प्रकारके दृष्टिकोणका अभाव है |

-तनुजा ठाकुर



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