सितम्बर २००५ में मैं भुवनेश्वर के पुस्तक मेले में श्री गुरु के लिखे ग्रन्थों की ग्रंथ प्रदर्शिनी में सेवा हेतु गयी थी | पुस्तक मेला के पश्चात एक साधक दीदी और मैं पुरी पहुंची जगन्नाथ जी के दर्शन करने | बस स्थानक पर पहुँचने पर एक पंडे ने बोला “मंदिर तो अब बंद हो गया है, दो घंटे पश्चात खुलेगा | हमारी ट्रेन रात्रि सात बजे की थी और समान भी बांधने थे अतः हम दोनों साधक निराश हो गए कि पुरी आकर भी इनके दर्शन नहीं हो पाये | बस स्थानक से मंदिर की चोटी दिखाई दे रही थी मैंने मन ही मन जगन्नाथ जी से प्रार्थना की “यहाँ आकार भी आपके दर्शन नहीं हो पाये, सच में हम पापी और नकली भक्त है “तभी उनकी सूक्ष्म ध्वनि आई ” अति शीघ्र आओ, मैंने मंदर का द्वार तुम्हारे लिए खोल कर रखा है ” मैंने अपनी साधक दीदी का हाथ थामा और दौड़ पड़ी कुछ क्षणों में मंदिर का गोपुरम दिखने लगा और उसमे साक्षात विष्णु और महालक्ष्मी मुझे हाथ हिलाकर बुला रहे थे | मैं दीदी हाथ पकड़ और ज़ोर से भागने लगी , वे कहने लगीं, “अरे पगली, मंदिर बंद हो गया वे पंडे यहीं सेवा करते हैं, ये समय के बड़े पक्के हैं, मैंने उनकी एक न सुनी हाँफते हाँफते मंदिर के द्वार तक पहुंची तो वहाँ मुख्य मंदिर के अंदर जानेवाला द्वार बंद होने वाला था और एक छोटा दरवाजा एक व्यक्ति बंद करने जा रहा था उसने हमें हाथ हिलाकर अंदर आने के लिये बोला “शीघ्र आईए मंदिर बंद हो गया है | हम मंदिर के अंदर गर्भ गृह बिना रुकावट के पहुँच गए, वहाँ परम शांति थी, वहाँ पुजारी ने भी कुछ नहीं कहा हम दस मिनट वही रुके, ततपश्चात वहाँ से निकले, साधक दीदी कहने लगीं मैं दो बार आई हूँ इतना अद्भुत दर्शन कभी नहीं हुआ सिर्फ हम तुम और भगवान जी !-तनुजा ठाकुर
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